जब संविधान बन रहा था तब संविधान सभा में सरोजिनी नायडू, सुचिता कृपलानी, विजयलक्ष्मी पंडित सहित कुल 15 महिलाएं और थी जिनमें से 12 महिलाओं ने शिक्षा, समानता, सशक्तिकरण सहित महिलाओं के पक्ष में काफी सुझाव रखे। इनमें से एक थी राजकुमारी अमृत कौर। इन्हें संविधान सभा में भारतीय महिलाओं का प्रतिनिधि बनाया गया जो महिलाओं के मुददों पर अपना पक्ष रखेंगी और जो जरूरी न हो उसपर महिलाओं से विमर्श कर अपने तर्क रखेंगी।
संविधान सभा में बहस चल रही थी महिलाओं को आरक्षण देने अथवा नहीं देने पर। राजकुमारी जी उठ खड़ी हुई और महिला आरक्षण को सिरे से नकार दिया। जबकि संविधान सभा में बेगम एजाज रसूल और दुर्गाबाई देशमुख ने महिलाओं के लिए आरक्षण की वकालत की थी। अमृत कौर जी का मत था कि इस तरह के विशेष प्रावधान से महिला और पुरुष के मध्य की खाई गहरा जाएगी इसलिए जो महिला सक्षम होगी वह मुकाबला करके आगे बढ़ सकती है। महिला आरक्षण का मुद्दा यहीं समाप्त हो गया।
समाजवादी विचारधारा रखने वाली पूर्णिमा बनर्जी आरक्षण के पक्ष में तो नहीं थी लेकिन उनका मत था कि महिलाओं की खाली हुई सीट को फिर से किसी अन्य महिला द्वारा ही भरा जाय न कि पुरुष द्वारा। जाति के मुददे पर एकमात्र महिला अम्मू स्वामीनाथन जो उच्च वर्ग से आने के बावजूद डॉ अम्बेडकर जी से खुलकर बहस की और इस मुददे को पूरा समर्थन भी दिया। अंततः महिला आरक्षण का मुद्दा दम तोड़ गया।
डॉ अम्बेडकर इसके दुष्परिणाम जानते थे मगर उनकी भी अपनी सीमाएं थी। संविधान लागू होने के बाद तुरंत ही वह हिन्दू कोड बिल लेकर आये जो केवल महिलाओं के उत्थान हेतु था लेकिन इसे भी संसद ने तथा समाज ने अस्वीकार कर दिया जिसके बदले में उन्होंने कानून मंत्री के पद से इस्तीफ़ा दे दिया। लेकिन डॉ अम्बेडकर जी की मृत्यु के पश्चात उसी हिन्दू कोड बिल को जरूर स्वीकार कर लिया गया मगर बिल को टुकड़ों में अलग अलग कर पास किया गया। आज उसे समझकर, लोगों की तत्कालिक समझ को जाने।
महिलाओं को हिन्दू कोड बिल से मिले अधिकारों के बात सशक्तिकरण समझ आया। प्रतिनिधित्व की बातें भी समझ आने लगी। संविधान में पंचायती राज अधिकार के रूप 73 वां संशोधन हुआ तथा गांव में सरपंच आदि के लिए चुनाव होने लगे मगर महिलाओं और दलितों की भागीदारी नगण्य थी। बिना आरक्षण के उन्हें समान अवसर मिलना असम्भव था। इस बात पर देशव्यापी मंथन होने लगा तथा संविधान संशोधन 85 किया गया जिसमें महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग उठ गई।
पहले देवगौड़ा सरकार फिर यूपीए कार्यकाल में महिलाओं के आरक्षण पर खुलकर विमर्श हुआ और सोनिया गाँधी, जयललिता, ममता बनर्जी, सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे, उमा भारती सब एकमत होकर आरक्षण के समर्थन में रहीं लेकिन एसपी, बीएसपी, आरजेडी ने कोटा के अंदर कोटा की मांग उठा दी। कोटा के अंदर कोटा को समझना उतना ही जरूरी है जितना कि संविधान के समय महिला आरक्षण को समझना था मगर समझा नहीं गया।
आज आप देखते हैं कि कई राज्यों ने पंचायत चुनाव में महिला आरक्षण को पचास फीसदी कर दिया है। इसमें समस्या यह हो गयी थी कि महिलाओं को भागीदारी तो मिल रही थी मगर दलित, पिछड़े, आदिवासी महिलाओं को अवसर ही नहीं मिल पा रहा था। आप आज भी देख लीजिए कोई दलित व्यक्ति अनारक्षित सीट से संसद नहीं पहुंच सकता है तो ग्राम प्रधान वह भी समानुपातिक रूप से कैसे पहुंचते? इसका तोड़ था कोटा के अंदर कोटा मगर इससे समस्या पुरुषों को हो गयी साथ ही सवर्ण विचारधारा की महिलाओं को भी।
पुरुष यह सब खेल जानते हैं खासकर नीति निर्माताओं में जो बैठे हैं। यदि एक नेता की सीट अगली बार बदल गयी तो पिछले नेताजी की राजनीति पर पूर्णविराम लग जायेगा? आज महिलाएं आरक्षण विरोधी नहीं है पर कुछ की मानसिकता ऐसी बनाई गई कि उन्हें आरक्षण के महत्व की समझ नहीं है। महिला प्रतिनिधित्व और समस्त महिलाओं का प्रतिनिधित्व दोनों के अंतर को जानना होगा। कोटा के अंदर कोटा समस्त महिलाओं का प्रतिनिधित्व है और बिना कोटा के महिलाओं की भागीदारी, हिस्सेदारी कभी पूर्ण नहीं हो सकेगी।
आज किसी भी सभा, संगठन, दल या मंच पर यदि कोई महिला नहीं होती है या दस पुरुषों के मध्य केवल एकाध महिला हो तो यह बात मुद्दा बनती है मगर यह संवैधानिक प्रावधान होता तो इसी को प्रतिनिधित्व कहते हैं आपकी भाषा मे आरक्षण? कोटा इसलिए जरूरी है। महिला आरक्षण तो एकदिन स्वीकार कर ही लें लेकिन फिर कोटा के अंदर कोटा? यह सभी के लिए अधिक पीड़ादायक बन रहा है। महिला आरक्षण की समर्थक महिलाएं भी इस विषय पर खुलकर नहीं कहती दिख रही।
आरक्षण में काबिलियत, मुफ्तखोरी, कमजोर होना यह विरोधियों द्वारा प्रचारित एक झूठ है जिसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है। आरक्षण समान अनुपात में भागीदारी होती है पचास प्रतिशत महिलाओं की आबादी है तो उनकी भागीदारी उतनी जरूरी है और यह अवसर से ही सम्भव है अन्यथा काबिलियत में कोई कमजोर नहीं होता तथा पेट से सीखकर कोई नहीं आता। सारा खेल अवसरों का है। राजकुमारी अमृत कौर रजवाड़े से थी तो उन्हें आरक्षण गैर जरूरी लगा लेकिन सुषमा स्वराज, जय ललिता, उमा भारती तत्कालिक तथ्यों से आज की वास्तविकता जानती थी।
मैं खुद को एक निष्पक्ष व प्रगतिशील व्यक्ति समझता हूं। इसका आधार यह है कि दुनिया में सबसे पहले दलित महिलाओं, आदिवासी महिलाओं की बातें होनी चाहिए क्योंकि वे दोहरे कष्ट झेलती है। उसके बाद बाक़ी सभी महिलाओं की बात होनी चाहिए क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज में महिलाएं आज भी दोयम दर्जे की व समस्त पुरुषों में अधिक उपेक्षित हैं। तमाम महिलाओं के बाद दिव्यांग, विकलांग, ट्रांसजेंडर्स, दलित, आदिवासी, गरीब इत्यादि की बात, उसके बाद बाक़ी समस्त नागरिकों की बात होनी चाहिये। हवा-हवाई बातों से समाधान नहीं निकलते हैं और इसे जानने, समझने को इतिहास की असंख्य तारीखें दर्ज है।
लेखक: आर पी विशाल
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