Swami Achutanand

अछूतों के प्रतिनिधि स्वामी अछूतानन्द का जीवन परिचय

By Ritu Bhiva March 16, 2022 04:13 0 comments

यह पेंसिल स्कैच 'अछूतानंद स्वामी जी' का बनाया है।  जिन्होंने बाबासाहेब डॉ0 आंबेडकर को लंदन की गोलमेज सम्मेलन में दलितों के लिए अलग प्रतिनिधित्व के लिए पूरा समर्थन दिया। उत्तर भारत में बहुजन नवजागरण के अगुआ आदि हिंदू '(मूलनिवासी)' आंदोलन के प्रवर्तक और व्यक्तित्व रहे हैं। जिन्होंने ब्राह्मणवाद को चुनौती देने वाली कविताएं एवं नाटक लिखें।

जीवन परिचय

स्वामी अछूतानन्द का जन्म 6 मई 1879 में उत्तर प्रदेश में ग्राम उमरी, पोस्ट सिरसागंज, जिला मैनपुरी में हुआ था। उनके पिता मोती राम ने उनका नाम हीरा लाल रखा था। बेटे के जन्म के बाद ही मोतीराम और उनके छोटे भाई मथुरा प्रसाद छावनी में जाकर पटलन में भर्ती हो गए थे, इस प्रकार हीरा लाल की प्राम्भिक शिक्षा वहीँ पलटन के स्कूल में हुई। 14 वर्ष की आयु तक उन्होंने उर्दू और अंग्रेजी में अच्छा अभ्यास कर लिया था।

मथुरा प्रसाद अविवाहित थे, हीरालाल का पालन पोषण उन्होंने ही किया था। वह उसे नित्य कबीर के पद सुनाते थे, जिससे निर्गुण भक्ति के बीज हीरालाल में बचपन में ही पड़ गए थे।  फलत उन्हें संतों का सत्संग अच्छा लगने लगा। एक बार वे घर छोड़ कर कबीर पंथी साधुओं के एक दल के साथ चले गए और जगह-जगह भ्रमण करते रहे। वे 24 साल की आयु तक घुमक्कड़ी करते रहे। उन्होंने धर्म, दर्शन और लोक-व्यवहार का बहुत सा ज्ञान अर्जित किया तथा गुरुमुखी, संस्कृत, बंगला, गुजराती और मराठी भाषाएँ भी इसी घुमक्कड़ी में सीख लीं। इसी बीच वे आर्यसमाजी प्रचारक स्वामी सच्चिदानंद से दीक्षा लेकर आर्यसमाजी स्वामी बन गए। गुरु ने उनका नाम हरिहरानन्द रखा। आर्यसमाज में भी उन्हें अछूतों के साथ भेदभाव का व्यवहार मिला उन्होंने आर्यसमाज छोड़ दिया।

1917 में दिल्ली के विशाल अछूत सम्मेलन में स्वामी जी  आर्य समाज के एक विद्वान स्वामी अखिलानंद को शास्त्रार्थ में पराजित किया । इससे खुश होकर वहां के जाटव समुदाय के मुख्याओं ने उनके "हरिहरानंद" ब्राह्मणवादी नाम की जगह, उनका नाम "अछूतानंद" वह उसी समय से उत्तर भारत के अछूतों के प्रतिनिधि स्वामी अछूतानन्द बन गए।

ब्रिटिश सरकार द्वारा पेश 1919 के राजनीतिक सुधारों में विभिन्न धार्मिक वर्गों को संख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व देने को मान्यता 'मोंटेगु-चेम्सफोर्ड' की रिपोर्ट पर आधारित दी गई थी, जिसमें दलित वर्गों को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया था और उनके लिए सुरक्षा का प्राविधान किया गया था। यह काम डा आंबेडकर ने गोलमेज सम्मेलन की अल्पसंख्यक समिति को ज्ञापन दिए गए  ज्ञापन में आठ मांगें रखीं, जिनमें समान नागरिकता का अधिकार, समान अधिकारों का उपभोग, भेदभाव के विरुद्ध संरक्षण, विधानसभाओं में समुचित प्रतिनिधत्व, सरकारी सेवाओं में समुचित प्रतिनिधत्व, पक्षपातपूर्ण कार्रवाई या हितों की उपेक्षा के विरुद्ध उपाय मुख्य थीं।

1922 में स्वामी अछूतानंद जी ने आदि हिंदु आंदोलन व्यापक रूप से चलाया और जिससे उनकी अछूत दलित समाज में बढ़ती छवि को देख मनुवादी लोग उनके विरोध में उतर आए, उनकी छवि खराब करने और उन पर हमले कराने लग गए।  28 अप्रैल 1930 को उन पर आगरा में जानलेवा हमला भी हुआ जिसमें वे बच गए।

1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया तो वे उसके स्वागत में बाबा साहब अंबेडकर के साथ रहे। उनका पूरा समर्थन किया और 1928 में ही बाबासाहेब से जब उनकी मुलाकात हुई तब बाबा साहब अछूत मुक्ति आंदोलन चला रहे थे तो स्वामी अछूतानंद का मन राजनीति में आने का बन गया। गोलमेज कांफ्रेंस में बाबा साहेब का पुरजोर समर्थन स्वामी अछूतानंद जी ने उनके समर्थन में पत्रों द्वारा किया। उन्होंने गांधीजी के हरिजन शब्द का खुलकर विरोध किया और हरिजन शब्द के विरोध में उन्होंने कई कविताएं, भजन आदि से गांव गांव जाकर उनके विरोध में प्रचार करने लगे। 1922-23 में दिल्ली मैं एक 'आदि हिंदू पत्र' का उन्होंने शुरुआत की। 1925 में कानपुर में आदि हिंदू पत्र प्रेस को लगवाया। उन्हीं के द्वारा दलित नाटकों की परंपरा की शुरुआत भी हुई। उनके नाटकों में बलिछलन, एकलव्य, रामराज्य अन्याय आदि। जिसमें उन्होंने शंबूक वध के अन्याय को दर्शाया है ।

1934 में ग्वालियर के विराट हिंदू सम्मेलन में उनका स्वास्थ्य खराब हो गया और गिरता ही चला गया बहुत इलाज कराने पर भी वह ठीक नहीं हुए और 20 जुलाई 1933 को कानपुर में उनका निधन हो गया।


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