आखिर भारत मे बौद्ध धर्म की आवश्यकता क्यों पड़ी?
By Ritu Bhiva March 11, 2022 06:26 0 commentsभारत में अछूतों को एक स्वतंत्र धर्म की आवश्यकता थी और इसीलिए बौद्ध धर्म को चुना गया हैं। 13 अक्टूबर 1935, येवला, नाशिक में धर्मांतरण की घोषणा के बाद, धर्मांतरण के बारे में सामाज की राय जानने के लिए 31 मई 1936, नायगांव, दादर, मुंबई में एक 'महार' सम्मेलन आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन में, मुक्ति का मार्ग क्या हैं? इसी नाम से प्रसिद्ध भाषण का समापन करते हुए बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर ने श्रोताओं से दो प्रश्न पूछे थे। वास्तव में इन सवालों के जवाब पाने के लिए ही महार सम्मेलन का आयोजन किया गया था।
वह प्रश्न हैं ।
हिंदू धर्म का त्याग करना हैं या हिंदू धर्म में ही रहना हैं? यह सवाल का एक भाग है और 'यदि हिन्दू धर्म का त्याग करना है तो फिर कौन सा धर्म स्वीकार किया जाए या एक नए धर्म की स्थापना की जाए? यह सवाल का दूसरा भाग हैं।
सवाल के पहले भाग में महार परिषद द्वारा सर्वसम्मति से यह स्वीकृत किया गया था कि 'हिन्दू धर्म का परित्याग करने के लिए हम सभी तैयार हैं। उसके तुरंत बाद मातंग परिषद तथा समय-समय पर चमार परिषद आदि के सम्मेलनों में सर्वसम्मति से 'हिंदू धर्म त्याग' करने का फैसला किया था इसलिए पहला प्रश्न हल हो चुका था।
कौन सा धर्म स्वीकार करना चाहिए या एक नए धर्म की स्थापना करनी चाहिए? यह प्रश्न का दूसरा भाग है जिसे स्वयं बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर द्वारा हल किया जाना था।
प्रश्न के दूसरे भाग में एक भाग यानि 'कौन सा धर्म स्वीकार किया जाए?' इसका मतलब मौजूदा धर्म, जैसे सिख, मुस्लिम, ईसाई, जैन, बौद्ध आदि में से किसी एक को चुनना।
सिख, मुस्लिम, ईसाई, जैन आदि धर्मों में पहले से ही धर्मांतरण कर चुके अछूतों की दुर्दशा के बारे में बाबासाहेब अच्छी तरह जानते थे। 'बौद्ध धर्म' भारत से विलुप्त हो चुका था और विदेशों में जिस रूप में बौद्ध धर्म था, बाबासाहेब के लिए बौद्ध धर्म के उस रूप को स्वीकार करना संभव नहीं था।
अब एकमात्र विकल्प बचा था 'अछूतों के लिए एक नए धर्म का निर्माण' करना। इसके लिए बाबासाहेब ने भारत में विलुप्त हो चुके बौद्ध धर्म का चयन किया और खोज शुरू की।
कई वर्षों के शोध के बाद बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर ने 18 मार्च 1956 को आगरा में एक ऐतिहासिक सम्मेलन में धर्म के नाम की घोषणा करतें हुए कहा कि, "कई वर्षों के प्रयासों के बाद, मुझे यह 'बुद्ध धम्म' मिला है।
इससे यह स्पष्ट होता है कि, जिस प्रकार एक पिता एक अमूल्य उपहार लाकर अपने बच्चों को देता है, उसी प्रकार परम् पूज्य पिता बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर ने वास्तव में हम अछूतों को एक नवयान के रूप में 'बुद्ध धम्म' दिया है। बाबासाहेब का कहना मानकर यदि हम सभी अनुसूचित जाति के लोग बौद्ध बनेंगे तो यकिन मानिए बौद्ध धर्म में हमसे ऊपर कोई नहीं होगा।
तो आइए हम सभी अनुसूचित जाति के लोग प्रतिज्ञा करतें हैं की।
आज अभी से अपने जीवन में, कहीं भी 'हिन्दू' शब्द नहीं लिखेंगे और जब भी धर्म लिखने की बात होगी, तो बौद्ध धर्म ही लिखेंगे।
अनुसूचित जाति से संबंधित लोग सिर्फ़ हिन्दू ही नहीं बल्कि ईसाई और मुस्लिम भी, जो की आरक्षण पाने के लिए सरकारी दस्तावेजों तथा जनगणना में धर्म-हिंदू लिखने के लिए मजबूर हैं, वे सभी संविधान (अ.जा.) आदेश (संशोधित) 1990 के तहत अपना धर्म - बौद्ध लिख सकते हैं।
मतलब अनुसूचित जाति से संबंधित लोगों के धर्म-बौद्ध और जाति-चमार, महार, पासी, मादिगा, आदि द्रविड, माला, दूसाध, धोबी, परिया, भंगी, कोली, आदि कर्नाटका, राजबंशी, बागडी, मुशहर, नमोशूद्रा आदि लिखने के साथ ही उन्हें संविधान (अ.जा.) आदेश 1950 लागू हो जाता है और उनका धर्म बदल कानूनी मानकर उनके सभी संवैधानिक अधिकार सुरक्षित हो जाते हैं।
धर्म परिवर्तन तीन पीढ़ियों का कार्यक्रम होगा।
(1) पहली पीढ़ी में सिर्फ़ लिखेंगे, यानि होली, दिवाली मनाते है, तो मनाईए लेकिन याद रखिए बच्चों के विद्यालय नामांकन पंजी से लेकर सभी निजी, सरकारी दस्तावेज हो या भारतीय जनगणना में धर्म-बौद्ध तथा अपनी अनुसूचित जाति लिखें।
(2) दूसरी पीढ़ी में सिखेंगे, यानि जिन बच्चों के सभी दस्तावेजों में बौद्ध-ही-बौद्ध लिखा होगा, बौद्ध संस्कार सिखना उनकी जरूरत होगी, यानि दूसरी पीढ़ी में होली, दिवाली मनाना अपने आप बंद हो जाएगा।
(3) बौद्ध संस्कारों से परिपूर्ण तीसरी पीढ़ी में सही मायने में बौद्ध समाज निर्माण होगा।
जरा सोचिए! जब लगभग 25 करोड़ अनुसूचित जाति के लोग बौद्ध लिखेंगे तो जितना हमारा संख्या-बल बढ़ेगा, उतना ही मनुवादियों का संख्या-बल घटेगा। कमज़ोर पड़े मनुवादियों को जब लगभग 25 करोड़ बौद्ध समाज के शक्ति का अहसास होगा तब जाकर के सवर्ण हिन्दूओं के मन-मस्तिष्क मे अपने-आप ही हमारे बौद्ध समाज के प्रति बराबरी का भाव उत्पन्न होगा।
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