सवर्ण आरक्षण : न्यायप्रिय भारत का एक सबसे बड़ा कलंक
By Ritu Bhiva May 12, 2022 11:04 0 commentsआज भारत में विपक्षी खेमें में मोटे तौर पर इस बात पर सहमति है कि भाजपा सरकार चरणबद्ध तरीके से संवैधानिक संस्थाओं और मूल्यों को ख़त्म कर रही है। इसका ताजा उदाहरण है सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार की जगह पर आर्थिक आधार को मानकर 10 प्रतिशत सवर्ण आरक्षण। सुदूर दक्षिण की कुछ एक पार्टियों के दृढ विरोध तथा एकाद उत्तर भारतीय पार्टियों के आधे-अधूरे विरोध को छोड़कर कांग्रेस-वाम समेत सभी पार्टियों ने इसका समर्थन किया है। मंडल आरक्षण की सर्वानुमति के बरक्स सवर्ण आरक्षण को रातोरात मिली ऐसी सर्वानुमति से दलित-पिछड़ा अवाम भौंचक है, मर्माहत है और उनके मन में ढेरों सवाल उठ रहे हैं जो शायद अनुत्तरित हैं।
ज्यादातर अकादमिक यह मान रहे हैं कि सवर्ण आरक्षण से भारत की 99 प्रतिशत आबादी आरक्षण के दायरे में आ गई है। इस सन्दर्भ में नावेल पुरस्कार विजेता विद्वान अमर्त्य सेन की प्रतिक्रिया गौरतलब है: "अगर सारी आबादी को आरक्षण के दायरे में लाया जाता है तो यह आरक्षण खत्म करना होगा, अंतत: यह एक अव्यवस्थित सोच है। लेकिन इस अव्यवस्थित सोच के गंभीर राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव हो सकते हैं।"
सवर्ण आरक्षण से उत्पन्न सवालों के उत्तर ढूँढने और इसके दूरगामी राजनीतिक-सामाजिक प्रभावों का विश्लेषण करने से पहले आइये, इसके संवैधानिक पहलुओं पर थोड़ी चर्चा कर लें।
सबसे पहले तो सवर्णों को गरीबी के नाम पर दिया जाने वाले वर्तमान आरक्षण को लें। वस्तुगत स्थिति यह दर्शाती है कि यह आर्थिक आधार पर आरक्षण न होकर, क्रीमी लेयर के साथ सवर्ण आरक्षण है। वैसा ही जैसा ओबीसी आरक्षण। ओबीसी के लिए जो क्रीमीलेयर सीमा है वैसे ही इस मामले में भी है। अतः इसे आर्थिक आरक्षण न कहकर, सीधे सवर्ण आरक्षण कहना चाहिए।
आरक्षण का आर्थिक आधार असंवैधानिक है। संविधान में पिछड़े वर्ग के नागरिकों (एसटी-एससी-ओबीसी) को आरक्षण द्वारा प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था का एकमात्र आधार सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन को माना गया है। इस मामले में संविधान सभा एकमत थी और जहां अनुच्छेद 340 में ओबीसी की पहचान के लिए आयोग बनाने की बात कही गई वहां स्पष्ट लिखा गया कि भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की दशाओं के, और जिन कठिनाइयों को वे झेल रहे, उसके अन्वेषण के लिए और उन कठिनाइयों को दूर करने और इनकी दशा को सुधारने के लिए आयोग बनाया जाना है। यहां सचेतन ढंग से केवल सामाजिक और शैक्षिक रूप से पीछे रह गए समूहों को शामिल करने की बात कही गई। आगे चम्पकम दोरई राजन मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद उत्पन्न भ्रमपूर्ण परिस्थियों को दूर करने के लिए पेरियार आंदोलन के प्रभाव में संविधान संशोधन के बाद अनुच्छेद 15(4) और 16(4)अस्तित्व में आए जिनके अनुसार 'कोई भी बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों किन्ही वर्गों की उन्नति के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नही करेगी'। मालूम हो कि जब इस संशोधन पर संविधान सभा (जिसे संसद का रूप दिया जा चुका था) में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने चर्चा के दौरान आर्थिक आधार को भी शामिल करने का प्रस्ताव रखा तो प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इसका जबाब देते हुए कहा कि संशोधन की मूल भावना अनुच्छेद 340 से ली गई है और वहां एकमत से केवल सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को ही आधार माना गया है। अतः अब इसमें बदलाव उचित नही है। संसद ने संशोधन प्रस्ताव को 5 के मुकाबले 252 मतों से खारिज कर दिया। संविधान का यह पहला संशोधन 18 जून 1951 को पारित किया गया । पुनः इंदिरा साहनी के बहुचर्चित केस में सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की संविधान पीठ ने इस मसले को सम्पूर्ण स्पष्टता देकर एक परिपूर्ण कानून स्थापित कर दिया है। इसी खंडपीठ ने नरसिम्हा राव सरकार के आर्थिक आधार पर गरीब सवर्णों को 10% आरक्षण के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। किसी वर्ग के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व को दूर करना ही संविधानिक आरक्षण के प्रावधान का एकमात्र उद्देश्य है, यह गरीबी मिटाने का कार्यक्रम नहीं है।
आरक्षण के पीछे संवैधानिक उद्देश्य को समझने के लिए संविधान के भाग-16 को देख जाना चाहिए। इसका शीर्षक ही है "कुछ वर्गों के बारे में विशेष उपबंध"। इसमें केवल एसटी-एससी- ओबीसी के बारे में ही नही बल्कि एंग्लो-इंडियन के बारे में भी व्यवस्था की गई है। इस भाग के कुल 13 अनुच्छेदों में से 5 एंग्लो-इंडियन के लिए विशेष उपबंध करते हैं। अब यह तो नही कहा जा सकता कि एंग्लो-इंडियन के वोट बैंक के लिए या आर्थिक, शैक्षणिक या सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए ऐसा किया गया है। अतः स्पष्ट रूप से यह समझ लेना चाहिए कि किन्ही विशेष कारणों से किसी वर्ग विशेष के किसी भी क्षेत्र में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व को दूर करने के लिए ही संवैधानिक आरक्षण का प्रावधान किया गया है। ऐसा विशेष कारण सामाजिक, ऐतिहासिक या राजनैतिक कुछ भी हो सकता है। इसी भावना के तहत अनुच्छेद 15-16 में ऐतिहासिक-राजनैतिक कारणों से पिछड़े वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई, और स्पष्टतः इसकी पहचान का आधार सामाजिक-शैक्षणिक पिछड़ेपन रखा गया।
पूर्व में नरसिम्हा राव सरकार द्वारा 1991 में ही आर्थिक आधार पर गरीब सवर्णों को 10% दिए गए आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट खारिज कर चुका है। इसके साथ ही अपने दसियों फैसलों में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि संविधान की व्यवस्था के अनुसार पिछड़ा माने जाने का आधार सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन है । इसके अलावा अन्य कोई आधार मान्य नही है।
अब चलिए, हम इस मुद्दे पर ज्यादातर बहुजन पार्टियों द्वारा अपनाये गए रवैया पर चर्चा करते हैं।
अपने आपको दलितों-पिछड़ों का हितैषी बताने वाले लोग मोदी सरकार द्वारा इस सवर्ण आरक्षण के विवादास्पद फैसले का समर्थन के लिए अनोखा तर्क दे रहे हैं कि इससे 50 फीसदी आरक्षण की सीमा टूट जायेगी। अन्ततः इससे बहुजन आरक्षण की सीमा बढ़ाने में मदद मिलेगी। ये दोनों मंतव्य और दलीलें मूर्खतापूर्ण और हास्यास्पद हैं। दक्षिण के कुछ राज्यों में आज भी 60 फीसदी से ऊपर आरक्षण है। संविधान ने कभी ऐसी कोई सीमा नहीं तय की थी। यह तो कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान इस आशय की सीमा बनाये रखने की सलाह भर दी थी। इसे दक्षिण के राज्यों ने पुख्ता ढंग से नकार दिया। इस सीमा के भ्रम को मिटाने के लिए संविधान संशोधन कर स्पष्टता की जरूरत थी, जिसकी मांग लोकसभा में एआइडीएमके प्रतिनिधि ने इस मामले पर बहस करते हुए स्पष्ट रूप से की। उन्होंने आगे बढ़कर मोदी सरकार के इस असंवैधानिक कदम का समर्थन नहीं किया।
ज्यादातर बहुजन पार्टियों का रवैया संविधान और आरक्षण के संवैधानिक-दार्शनिक पक्ष के प्रति उनकी अज्ञानता को दर्शाता है। ऐसा इसलिए भी है कि उन्होंने अपने शुरुआती आन्दोलन के दौर की आक्रामकता खो दी है और प्रतियोगिता पूर्ण राजनीति में बने रहने के दबाव में जाने-अनजाने कांग्रेस के प्रभामंडल और भाजपा की आक्रामकता के समक्ष घुटने टेक दिए हैं।
ऐसे लोगों को पुणे पैक्ट से लेकर संविधान सभा के आरक्षण विषयक विमर्श की शायद ही कोई जानकारी है। मूल सवाल यह है कि जो पहले से ही अधिक प्रतिनिधित्व हड़पे हुए हैं उनको और प्रतिनिधित्व देने का क्या तुक? जब कोई तुक नही तो क्यों बहुजन पार्टियां इसका विरोध नही कर सकीं? ऐसा शायद वोट के लिए कदापि नही, क्यों कि ये अल्पजन वोट के मामले में भेड़ के समान हैं जिसके लिए आम किस्सा है कि भेड़ के लगले का, बिसुकले का। यानी भेड़ इतनी कम मात्रा में दूध देती है कि उसके दुहाने न दुहाने से ज्यादा फर्क नही पड़ता। इसका एक कारण निश्चित ही विचारधारा और मूल्य से इनका कट जाना है। ऐसे कटे होने की वजह से ये अपनी जड़ों से कट गए हैं और कहीं न कहीं आंतरिक कमजोरी के शिकार हैं। अब शायद जाति ही इनके लिए भी एकमात्र सहारा है और वह इसके बने रहने में ही अपने अस्तित्व की सुरक्षा देखते हैं। इस मायने में ये जाने-अनजाने जाति-व्यवस्था के समर्थक बन जाने को अभिशप्त हैं। दूसरा कारण है, जो बहुजन या कृषक जातियां ओबीसी फोल्ड से बाहर हैं, वे लगातार इसके अंदर आने के लिए जोड़दार प्रयास कर रही हैं। शुरू में भले ही वे आरक्षण व्यवस्था के बरक्स खड़ी थीं लेकिन समय के साथ जब उनके आंदोलन में परिपक्वता आई तो वे आरक्षण व्यवस्था की समर्थक हो गईं। हार्दिक पटेल और यशपाल मलिक इसके उदाहरण हैं। जैसे ही उनको समझ में आ गया कि उनकी हकमारी आरक्षण की व्यवस्था से नही बल्कि ब्राह्मणों की हड़प नीति की वजह से है, वैसे ही वे भी जाति जनगणना की मांग करने लगे और अपनी संख्या के हिसाब से प्रतिनिधित्व मांगने लगे। यही से ब्राह्मणों में पुनः छटपटाहट शुरू हो गई। उन्हें पता था कि वे किसका कितना हड़प कर बैठे हैं और एक बार यदि यह भेद खुल गया तो हड़प-हड़प के खाया-पिया सब निकल जायेगा। वैसे तो शुरू से ही समय-समय पर आरक्षण का मामला उनकी नींद में खलल डालते रहा है, जैसे पेरियार का चम्पकम दुराई राजन निर्णय के विरुद्ध आंदोलन या अन्य राज्यों में समय-समय पर आरक्षण का लागू होना।
वे इन्हें राज्यों तक ही सीमित कर निश्चिन्त हो जाते थे, पर इस मामले में 1990 का मंडल आंदोलन ने इनकी नींद उड़ा दी। बहुत कुछ न कर पाने की स्थिति में ब्राह्मणों ने रणनीति बदली। आरक्षण की व्यवस्था को खत्म करने का वे षडयंत्र करने लगे। एक तरफ कमंडल यात्रा शुरू हुई तो दूसरी तरफ वैश्वीकरण-निजीकरण-उदारीकरण। वहीँ कोर्ट के माध्यम से इस व्यवस्था को कमजोर करने की शुरुआत भी हुई। सबसे बड़े केस इंदिरा सहनी, जिसे हम मंडल केस के नाम से भी जानते हैं और जिसमें आरक्षण की पूरी संविधानिक स्किम पर पूर्णतया स्पष्ट मोहर लगाई गई, उसी समय भविष्य में डायनामाइट लगाने के लिए इसमें दो सूराख भी कर दिए गए, कृमि-लेयर का प्रावधान और प्रोमोशन में रिजर्वेशन पर सीमित प्रतिबंध। इन्ही दोनों प्रावधानों का प्रयोग कर वे आरक्षण की व्यवस्था को समय-समय पर कटघड़े में खड़ा कर पा रहे हैं। इसबार उन्होंने सवर्ण रिजर्वेशन के माध्यम से उन सूराखों में डायनामाइट लगा दिया है। यदि इसको वहां से नही हटाया गया तो समय पर वह फटेगा ही, और तब भारतीय समाज के सबसे ऐतिहासिक भेदभाव को ख़त्म करने के सबसे व्यावहारिक हथियार को मिट्टी में मिलते देर नही लगेगी।
एक बात स्पष्ट समझ लेनी चाहिए कि सवर्ण आरक्षण महज मोदी कैबिनेट का फैसला नही बल्कि आरएसएस का फैसला भी है। मोदी कैबिनेट में तो यह आखिरी लम्हों में आया बिना एजेंडे के संसद में चर्चा के लिए नही, केवल मुहर के लिए, कोर्ट में भी वही होगा। इसलिए कि इसमें क्या पक्ष क्या विपक्ष, सभी एकमत हैं, लगभग सर्वानुमति है और यह अकेले भाजपा के बश की बात नही, कांग्रेस भी उतनी मुस्तैदी से लगी हुई। आप चाहे तो यहां वामपंथ की मिलीभगत को भी जोड़ लें। यह कदम केवल चुनावी फायदे के लिए नही बल्कि ब्राह्मण राज को भविष्य में सुदृढ बनाये रखने के लिए उठाया गया कदम है। यह आरएसएस के मूल एजेंडे का हिस्सा है, जिससे कि भविष्य में आरक्षण की व्यवस्था को समाप्त किया जा सके। दरअसल यह बिहार चुनाव के पहले भागवत ने आरक्षण की समीक्षा की जो बात की थी उसे ही कार्यरूप दिया गया है। पर बहुजनों की रणनीति हमारे समझ से परे हैं। ये किसके वोट पर खड़े हैं? एक ही बात हो सकती है कि ये निहायत व्यक्तिवादी हो चुके हैं, इनको समाज की कोई चिंता नही। केवल परिवार तक सिमट गए हैं। वर्ना 5% वाले ब्राह्मणों से कोई कितना वोट की उम्मीद कर सकता है। जो लोग सवर्ण आरक्षण का समर्थन कर रहे हैं उनकी तो बात ही अलग है। पर जो थोड़े विरोध भी कर रहे हैं उनमें से भी ज्यादातर हिंदी बेल्ट वाले बड़ी चालाकी से सवर्ण आरक्षण पर सच बोलने से कन्नी काट रहे हैं। वे लोग इसे मोदी सरकार की मजबूरी बता और इसे झुनझुना जैसा मानकर विपक्ष के लिए गैरजरूरी बता वैसा ही झूठ बोल रहे जैसे एक कथा में कहा जाता है "अश्वथामा हतो गत्वा" यानी सफेद झूठ अर्धसत्य। यथार्थ यह है कि सवर्ण आरक्षण ने अब संविधानिक मान्यता प्राप्त कर ली है। इसे विधि का बल प्राप्त हो गया है। चूंकि यह संविधान में संशोधन द्वारा किया गया है, इस मायने में यह जाट आरक्षण या नरसिम्हा राव सरकार आदि के पहले के अन्य किसी भी मामलों से भिन्न है। सबसे महत्वपूर्ण बात कि यह संविधान के मूल भावना के खिलाफ भी है, पहले से ही अति-प्रतिनिधित्व हड़पे वर्ग को आरक्षण के दायरे में लाकर 'आरक्षण की संवैधानिक स्कीम' को भविष्य में तहस-नहस करने के लिए ही यह किया जा रहा।
'संविधान बचाओ' की दिन-रात रट लगानेवाले नेतागण यह जान लें कि संविधान कोई इमारत नहीं जिसे भाजपा जमींदोज कर रही है। यह मार्गदर्शक नियामक उसूलों का दस्तावेज है जिससे देश चलता है। उन्हीं उसूलों में एक सामाजिक और शैक्षणिक आधार है जिससे यहां की आरक्षण व्यवस्था संचालित होती है। आर्थिक आधार पर सवर्ण आरक्षण लागू कर उसके एक महत्वपूर्ण उसूल को ख़त्म कर दिया गया है। सच में, हमारा देश सबसे खतरनाक दौर से गुजर रहा है।
प्रतिगामी और वर्चस्वशाली ताकतों ने, जो मंडल उभार में थोड़ी दब गई थीं, पुनः बढ़त हासिल कर ली है। सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय में भारी घालमेल कर दिया गया है। भाजपा सहित कांग्रेस, वामपंथी आदि दलों के लिए सामाजिक न्याय महज एक टैक्टिकल लाइन है, उसका मुख्य ध्येय नहीं। वहीँ बहुजन पार्टियों के लिए सामाजिक न्याय मुख्य ध्येय है। अभी ऐसा मालूम पड़ता कि बहुजन पार्टियों का टैक्टिकल लाइन ही उनका मुख्य ध्येय बन गया हैं। ऐसी स्थिति में आज जरूरी है कि बहुजनों का विचारशील तबका अपनी पूरी आक्रामकता के साथ सामने आए।
जाहिर है इस छोटे से लेख में सभी सवालों के उत्तर नहीं दिए जा सकते। हमारा उद्देश्य है कि इस पर व्यापक विचार-विमर्श हो और एक बड़े वैचारिक-राजनीतिक फ्रेमवर्क में ज्वलंत वैचारिक-राजनीतिक एजेंडा को सूत्रबद्ध किया जाए। हम उम्मीद करते हैं कि इससे बहुजनों की जो एकजुटता पैदा होगी, वह निश्चय ही नीच मनुवादी मंसूबों को चकनाचूर कर देगी।
लेखक : मनीष रंजन
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