Godi Media vs OBC

गोदी मीडिया बनाम ओबीसी पत्रकारिता

By Ritu Bhiva April 16, 2022 08:57 0 comments

अक्सर  पत्रकारिता के बारे में  लोगों की यह  धारणा होती है कि पत्रकार जो बोलता है सही बोलते हैं जो लिखता है वह सही लिखता है।  लेकिन आजकल की पत्रकारिता और साहित्य को देखकर यह सही साबित होता की ब्रिटिश लेखक "सर वाल्टर स्कॉट"  का दर्शन सच साबित हो रहा है।  जिन्होंने अपने साहित्य मे लिखा कि A picture of the room is the mind of that person who hangs it. अर्थात किसी के घर में टंगी हुई चित्र उस आदमी के दिमाग को दर्शाती है जो उसको टांगता है।  यह सही है कि जो भी साहित्य और धार्मिक उपन्यास लिखे गए हैं वह उपन्यास लिखने वाले का दिमाग है ना कि  सामाजिक स्वीकार्यता लेकिन जबरदस्ती अशिक्षित व्यक्तियों पर मनोवैज्ञानिक ढंग से थोप दी गई।

 यही हाल आज भारतीय पत्रकारिता में भी चाहे अल्प जन समाज के पत्रकार हो चाहे बहुजन समाज के पत्रकारों हो में दिखाई दे रही है।  मीडिया तो हमेशा सासन सत्ता या पत्रकारों या मीडिया घरानों के हिसाब से ही चलती है लेकिन बहुजन समाज की पत्रकारिता में देखने में आता है कि गोदी मीडिया की तरह ही इनमें भी जातिवादी मानसिकता की बू आती है।  क्योंकि जातिवादी मानसिकता ही घर कर गई है जब एक बहुत बड़ा समूह सामाजिक लड़ाई सामाजिक न्याय के लिए लड़ता है। वह  तथ्य पत्रकार उजागर तो करते हैं लेकिन इनके दिमाग में कुछ रटे रटाई  और रेडीमेड क्वेश्चन होते जो कि जाति आधारित होते हैं और ओबीसी आधारित नहीं होते हैं। अगर कोई ओबीसी का पत्रकार किसी मनुवादी से प्रश्न पूछता है तो यही पूछेगा कि आपके शंकराचार्य में कितने दलित हैं, नहीं है  तो क्यों नहीं, ताकि वह दलितों के प्रति नफरत की बातें कर सकें, लेकिन कभी यह नहीं पूछेगा कि आपके शंकराचार्य मंडल में कितने ओबीसी हैं नहीं है तो क्यों नहीं।

अगर न्यायपालिका के बारे में प्रश्न करेगा तो हमेशा यही करेगा कि दलित के लोग जज क्यों नहीं बन पाते जबकि यह कभी नहीं पूछता है कि ओबीसी  के लोग जज क्यों नहीं बनते हैं।  जब विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर के बारे में पूछेगा तो हमेशा ही पूछेगा कि दलित प्रोफेसर क्यों नहीं रखा जाता है लेकिन यह नहीं पूछेगा कि ओबीसी के प्रोफेसर  क्यों नहीं रखे जाते हैं।  जब शिक्षा के बारे में पूछेगा तो हमेशा ही पूछेगा कि दलितों को शिक्षा से वंचित क्यों किया जा रहा है जबकि यह कभी नहीं पूछेगा कि ओबीसी  लोगों को शिक्षा से वंचित करने की क्यों कोशिश की जा रही है।  साफ जाहिर होता है कि दलितों के बारे में नफरत की भाषा ज्यादा पसंद करते होंगे। अगर ओबीसी के बारे में पूछेंगे तो ओबीसी के बारे में भी नफरत  की ही भाषा मिलती है लेकिन ये सायद जानबूझकर ऐसा नहीं करते हैं।

कुछ लोगों को उत्तर प्रदेश के  चुनाव टाइम पर ही ओबीसी पत्रकारों की मानसिकता समझ में आ गई होगी जो कई कार्यक्रम चलाते थे जैसे, माहौल क्या है। राजनीतिक माहौल क्या है,  राजगद्दी पर कौन, सत्ता किसके हाथ में, लगभग ऐसी हेडिंग दे कर के यह लोग अपनी पत्रकारिता का प्रोग्राम बनाते थे और करते थे। आकलन और प्रोग्राम बनाने के लिए जब   फील्ड में निकलते थे तो इससे पहले यह लोग भाजपा और सपा के दफ्तर में टेलीफोन करके प्रोग्राम बना लेते थे।  कि हम इस टाइम पर आपके यहां माहौल क्या है का प्रोग्राम करने के लिए  आ रहे हैं ताकि आप अपने कार्यकर्ताओं को इकट्ठा कर ले और वही होता था।  बीजेपी कार्यालय को जब पता लगता था तो अपने कार्यकर्ताओं को इकट्ठा कर लेता था और  समाजवादी पार्टी को पता लगता था तो अपने कार्यकर्ताओं को इकट्ठा कर लेता था और केवल बीजेपी बनाम सपा की लड़ाई साबित करने में लगा हुआ था।

इन मामले में बहुजन समाज के लोग खास करके कुछ पत्रकारों का नाम अच्छी तरह जानते हैं जिनको यह सोचते हैं कि यह लोग सामाजिक परिवर्तन में बहुत बड़ी भूमिका निभा रहे हैं । लेकिन शायद यह समझने में मनोवैज्ञानिक भूल हो रही है।  जिसमें शायद नेशनल जनमत, नेशनल दस्तक  जैसे सोशल मीडिया के पत्रकार मशहूर है। यह लोग केवल और केवल सामाजिक लड़ाई में दलित को ही  मोहरा बनाते हैं ये लोग  कभी ओबीसी के  बारे में ऐसा क्वेश्चन नहीं पूछते हैं। ताकि पिछड़ों की लड़ाई मजबूत की जा सके। बल्कि इस आंकड़ा पर ध्यान देते हैं कि ओबीसी के  किस बिरादरी के कितने प्रतिनिधि चुने गए नाकी उस समाज के महापुरुषों के सामाजिक लड़ाई के बारे में बताते हैं।

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