9 साल की उम्र में शादी का धार्मिक-शास्त्रीय, प्रावधान इसलिए रखा गया ,ताकि स्त्री पढ़ ना सके। माहवारी के बाद पुत्री को जो पिता घर मे रखता है ,वह उसका वही रक्त पीता है ,ये लिखने वाले ठग आखिर चाहते क्या थे। एक तरफ पुरुष के लिए 25 वर्ष ब्रह्मचर्य आश्रम तो स्त्री के लिए नादान उम्र में पति-परमेश्वर ये स्त्रियों के लिए सनातन ठगी नही तो क्या है। कोई हरामखोर उसे 'ताड़न का अधिकारी' बता रहा है तो कोई 'एकांत का दुरुपयोग करने वाली'। सारे व्रत ,सारे गुनाह , सारे एहतियात स्त्री को ही लिखने का मकसद आखिर क्या रहा होगा।
सती प्रथा, जौहर, कन्या वध, दहेज, देवदासी, वैधव्य प्रताड़ना, पर्दा प्रथा, सब नारी को ही क्यों।
क्या माँ, बहन, बीवी, बेटी के प्रति इतना क्रूर है हमारा समाज।
किसने बनाया उन्हें इतना नियमबद्ध क्रूर।
सनातन संस्कृति का आधार क्या यही क्रूरताएँ हैं।
जब जब नारी ने पढ़ने की सोची, सनातन पाखण्डियों के पसीने क्यो आये।
क्योंकि धर्म डरता है शिक्षा से, जो कि ज्ञान देती है,और तर्क करती है। जहाँ तर्क है, वहां धर्म को आस्था के पीछे छुपना पड़ता है। गौरी लंकेश से इतना डरा सनातन धर्म कि उनकी हत्या ही करा डाली। पुरुष लिखते हैं धर्म को कम खतरा था, मगर स्त्री होकर लिखे, यह तो क्रांति का आगाज़ है, धर्म का काल है भई। अगर स्त्री ने धर्म के स्वार्थपूर्ण नियमों को समझ लिया तो कौन ढोएगा इस पाखण्ड को। कलश यात्रा, जागरण, व्रत कथा, सत्संग, कथाएं, रिवाज, दक्षिणा, जिद, सस्वर नृत्य, आभूषण, बन्धन, रिश्ते, समागम, पवित्रता, सात जन्म, वचन, सब बोझ पुरुष के बस का थोड़े ही है।
अभी हाल ही में जे एन यू में चंद लड़कियों ने आजादी क्या माँगी, धर्म से लेकर राष्ट्रवाद तक को लपेट लिया 'सनातन पाखण्डियों' ने। बी एच यू में हमारी बच्चियों के साथ पुलिसिया क्रूरता का आधार यही सनातनी सोच है। यह घटना राज्य सरकार की बागडौर संभाले बैठे सनातन धार्मिक मुखौटे की मंशा ज़ाहिर करती है। कोई आम आदमी मुख्यमंत्री होता तो शायद उसे धार्मिक समझ कम होती, लेकिन यहां तो सनातन संत परम्परा के शिरोमणि विराजमान हैं। ये ''धर्म की नगरी बनारस'' में नही होगा तो कहां होगा। क्योंकि उसी बनारस में विधवाओं को 'सभी मानवीय हकों' से वंचित रखकर उनके 'बीमार पति-परमेश्वर की मृत्यु पर सती या आत्महत्या' का दंड देने की बहुत पुरानी परंपरा रही है। यहां नारी को जिस्म के रूप में देखने के आदी 'वहशी कुत्तों' के लिए सब नारियाँ एक उपभोग की चीज-वस्तु मात्र हैं।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में जो घटित हुआ, जे एन यू में जो हंगामा हुआ, यह नया नही है। इन्ही पाखंडी ठगों के पूर्वजों ने पुणे में सावित्री बाई फूले के साथ भी तो यही किया था। उनके कपड़ों पर गोबर, कीचड़ डालने की बात तो सबने सुन रखी है, लेकिन क्या आप जानते हैं इन सनातनियों ने बालिका शिक्षा को बंद करने की दूसरी नीच साजिश कौनसी की।
1848 में भीड़ेवाड़ा बुधवार पेठ पुणे में जिस पहली बालिका स्कूल की स्थापना की गयी थी, उस स्कूल के आजू-बाजू बुधवार पेठ में आज भारत की दूसरी सबसे बड़ी 'जिस्म की मंडी' कैसे बना दिया गया। रेड-लाइट एरिया बसाने वाले लोग किस जाति वर्ग के होते हैं, धर्म की दुहाई देने वाले, धर्म के होलसेलर, डीलर और ठेकेदार कौन लोग हैं, ये हम आसानी से समझ सकते हैं। कैसे बहुत ही नीचता से स्त्री-शिक्षा के पहले पौधे के आसपास तेज़ाब बिखेरा गया, ताकि भविष्य में धर्म के खिलाफ किसी क्रांति का आधार ही न बन पाए।
आज भी जब किसी लड़की द्वारा घर पर खुद से छेड़छाड़ की बात कही जाती है, अधिकतर परिवार उसको घर मे कैद करने का उपचार करते हैं। रेप विक्टिम को उसके कपड़े, रहन सहन और बेखौफ हँसी के लिए कोसा जाता है। आखिर क्या गुनाह हुआ उस से समाज का सृजनहारी बनने की क्षमता पाकर। काश! हर औरत इस सनातनी धार्मिक साजिश को समझ पाती। मैं फिर दोहराऊंगा, संविधान नही होता तो नारी का अस्तित्व सिर्फ और सिर्फ 'भोग-विलास की वस्तु' होने तक ही सिमट जाता।
पौराणिक भागवत कथाओं की बजाय संविधान से प्राप्त 'नारी अधिकार की धाराओं' के प्रचार कीजिये ताकि कोई भी रिश्ता उस से कुछ भी धार्मिक प्रपंच के नाम पर लूट ना पाए।
धर्म-ग्रंथ नही, आईपीसी की धाराएं पढ़ाइये अपनी बेटियों को।
व्रत नही, भरपेट खिलाइए अपनी बेटियों को, दहेज नही अच्छी शिक्षा पर खर्चे, संस्कार नही जूडो कराटे सिखाइये अपनी बेटियों को।
और अगर उसके साथ कोई भी अनहोनी होती है, तो उसे अहसास दीजिये कि पापा, पति या भाई उसे समाज द्वारा स्त्री होने की, परम्परागत सजा नही थोपने देंगे।
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