Kabir and Raidas

कबीर और रैदास के राम, दशरथपुत्र राम नहीं हैं

By Ritu Bhiva February 25, 2022 07:19 0 comments

राम भारतीय भूभाग में मानवता को जोड़ने का सूत्र कब रहे  ये तो राम ही जाने या फिर रामभक्त जानें। किसी भी वर्गविभक्त समाज में शोषितवर्ग की अपनी कोई संस्कृति नहीं होती। बल्कि शोषक वर्ग की संस्कृति ही दलित-शोषित श्रमिकवर्ग की संस्कृति रही है क्योंकि वर्गसमाज में शोषकवर्ग के विचार ही प्रचलन में होते हैं और हज़ारों वर्षों से शोषकवर्ग की संस्कृति और विचारों को अनेकों माध्यमों से शासकवर्ग द्वारा लगातार प्रचारित किया जाता रहा है, इसीलिए शासकवर्ग के विचार और उसकी संस्कृति, शोषित और दमित श्रमिकवर्ग के अचेतन और उसकी मांस-मज्जा में समाविष्ट हो गई है। चूंकि दलित-शोषित श्रमजीवीवर्ग को ज्ञान और शिक्षा से हमेशा ही वंचित रखा गया इसीलिए वह शासकवर्ग की संस्कृति को ही अपनी संस्कृति मानकर चलता रहा है। यह उसकी परिस्थितिगत बाध्यता थी। वर्णव्यवस्था पर आधारित इस संस्कृति का धर्म, ईश्वर, आत्मा, स्वर्ग नरक, पुनर्जन्म, कर्म के सिद्धांत जैसे शासकवर्ग समर्थित विचारों और रामायण, महाभारत, वेद, गीता, पुराण और अनेकों स्मृतियों जैसे धर्मशास्त्रों के माध्यम से पवित्रीकरण किया जाता रहा। इसीलिए दलित-शोषित और श्रमजीवी वर्ग कालांतर में शासकवर्ग की संस्कृति का स्वयंमेव वाहक हो गया। इसीलिए आज जितने भी तीज-त्यौहार और उत्सव प्रचलन में हैं उनमें से अधिकांश सामंती व्यवस्था की ही उपज रहे हैं। आज जिस राम का नाम लेकर सत्ता पर क़ाबिज़ सामंती शक्तियां इतना हो-हल्ला मचा रही हैं, वह ब्राह्मणी संस्कृति का प्रतीक रहा है और यह संस्कृति दलित शोषित और श्रमजीवी वर्ग के शोषण और दमन का कारण रही है। सर्वविदित ही है कि सबरी और सुग्रीव राम के सेवक थे और शायद वे उस समय की जनजातियों से संबंधित थे। वाल्मीकि, भास, कंबन, जटायू इत्यादि भी राम के घोर भक्त और सेवक थे बल्कि यूं कहें कि राम के जी हुज़ूर थे और तत्कालीन ब्राह्मणी व्यवस्था के समर्थक भी थे। इसीलिए दशरथपुत्र राम उनके हो सकते थे। लेकिन शूद्र वर्ण से संबंधित ऋषि शम्बूक ने तत्कालीन ब्राह्मणी व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया। इसीलिए तमाम ब्राह्मणी प्रतिबंधों के बावजूद वे तप कर रहे थे। वे राम के समर्थक और सेवक भी नहीं थे। वे राम या तत्कालीन व्यवस्था के विरोधी थे ऐसा भी कोई उल्लेख नहीं मिलता। लेकिन ब्राह्मणी धर्म में कोई शूद्र तटस्थ रह सके ऐसी भी अनुमति ब्राह्मणी धर्म और व्यवस्था में नहीं थी।

शूद्र के रूप में ब्राह्मणों और ब्राह्मणी धर्म के ग़ुलाम होकर रहना ही उसकी नियति थी। ऐसे में वे तप इत्यादि कैसे कर सकते थे? लेकिन उन्होंने तप करने का 'घोर पाप' किया था। यह ब्राह्मणी व्यवस्था का घोर उल्लंघन था। इसीलिए दशरथपुत्र राम ऋषि शम्बूक के कैसे हो सकते थे? यह असंभव था। इसीलिए मात्र एक मामूली से ब्राह्मण के कहने पर बिना किसी कसूर के राम ऋषि शम्बूक का वध कर सकते थे। इसी तरह किसी एक कथित ब्राह्मण के यह कहने पर कि अमुक शूद्र के वेद मंत्र सुन लेने से उसका पुत्र मर गया है, दशरथपुत्र राम शूद्र के कानों में पिघला हुआ सीसा उंडेलवा देते हैं। ऐसे में, राम सबके आश्रय हैं, या हो सकते हैं, यह कहना उचित नहीं मालूम होता। मेहनतकश शूद्रवर्ण ब्राह्मणी धर्म का ही हिस्सा रहा है लेकिन वे राम और उनकी ब्राह्मणी व्यवस्था में कभी भी स्वीकार नहीं किए गए। वे अछूत समझे गए यानी छूने योग्य भी नहीं समझे गए। उनको न कभी राम ने स्वीकार किया और न ही उनको दशरथपुत्र राम ने कोई आश्रय दिया। इस तरह राम की रीति-नीति मनुष्य को मनुष्य से तोड़ने वाली रही है न कि जोड़ने वाली। इसीलिए यह कहना कि युग-युगांतर से राम का चरित्र भारतीय भू-भाग में मानवता को जोड़ने का सूत्र रहा है, गले नहीं उतरता। यह एक धार्मिक और राजनीतिक झूठ है। राम की ही तरह, आध्यात्मिक मान्यताओं के अनुसार तुलसी भी कोई आत्मज्ञान को उपलब्ध संत वग़ैरह नहीं थे। इसीलिए वे ब्राहमणवाद के घोर समर्थक और पोषक हो सके थे क्योंकि कोई भी वास्तविक धार्मिक, आत्मज्ञानी या ब्रह्मज्ञानी व्यक्ति वर्णव्यवस्था का समर्थक और पोषक कभी नहीं हो सकता। यह असंभव है। इसीलिए तुलसी और राम की खूब जमती है। इसीलिए दशरथपुत्र राम तुलसी के और तुलसी राम के हो सकते थे। यह संभव है। ऐसा ही हुआ है। तुलसी दशरथपुत्र राम और ब्राहमणवाद के इतने भक्त, भक्त नहीं  कहो कि अंधभक्त कि कृष्ण तक को नकारते हुए मथुरा में बांके बिहारी की मनमोहिनी मूर्ति को देखकर वे कह उठते हैं:

का बरनौं छवि आपकी, भले बने हो नाथ।
तुलसी मस्तक तब नवे, जब धनुष बाण लो हाथ।
अर्थात जब तक कृष्ण राम की ही तरह हाथों में धनुष बाण नहीं लेंगे तब तक वे कृष्ण के सामने नहीं झुकेंगे।

 
दशरथपुत्र राम, गांधी के भी हो सकते हैं क्योंकि गांधी कथित रूप से संत या महात्मा होते हुए भी कोई आत्मज्ञानी या आध्यात्मिक पुरुष नहीं थे। मूलतः वे हिसाबी-किताबी और चतुर राजनीतिज्ञ ही थे और हिंदुत्व के ही प्रबल समर्थक और पोषक थे। उन्हें रामराज्य को पुनः लाने की धुन सवार थी। इसीलिए गांधी भारतीय शासकवर्ग के सर्वमान्य नेता हो सके। यही कारण है कि गांधी राम के और राम गांधी के हो सकते हैं। गांधी जीवन पर्यंत ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान का गोरखधंधा करते रहे। लेकिन मृत्यु के समय जो शब्द उनके मुंह से निकला वह अल्लाह वगैरह नहीं था, बल्कि राम ही था। और वह राम दशरथपुत्र राम ही था। वह राम, कबीर और रैदास का 'राम' नहीं था। यह फ़र्क़ अति महत्वपूर्ण है। और गांधी के रघुपति राघव राजा राम सबको सन्मति देने वाले भी कहां सिद्ध हुए? गांधी के राम तो आज भी अपने भक्तों तक को सन्मति देने में असमर्थ हैं। सत्ता पर क़ाबिज़ उनके भक्तों के शोषण और दमन के क्रियाकलाप आज भी बदस्तूर जारी हैं। आज भी वे शम्बूक और एकलव्य विरोधी ही बने हुए हैं और फिर से ब्राह्मणवाद पर आधारित रामराज्य को लाने के भागीरथी प्रयासों में संलग्न हैं। आज तो राम के भक्तों को गांधी तक स्वीकार नहीं हैं। वे आज गांधी के नहीं, सावरकर के दीवाने हैं। इसी तरह, सीता के पास होते हुए भी राम, सीता के कभी न हो सके क्योंकि सीता स्त्री थी और ब्राह्मणी धर्म में एक स्त्री-पुरुष के बराबर कैसे हो सकती थी? ब्राह्मणी धर्म में तो स्त्री, पुरुष की दासी ही हो सकती थी। इसीलिए ब्राह्मणी धर्म की मान्यताओं के अनुसार राम ने सीता की क़दम-क़दम पर अनेकों परीक्षाएं लीं और हर परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बावज़ूद राम ने एक धोबी के कहने भर से अपनी गर्भवती पत्नी सीता को धोखे से जंगल में छुड़वा दिया। यह कौन सा और कैसा धर्म था यह राम ही जानें या उनके भक्त जानें। ऐसे राम, रैदास और कबीर के राम कभी नहीं हो सकते थे और कबीर और रैदास भी ऐसे राम की शरण में कदापि नहीं हो सकते थे। असल में, रैदास और कबीर ने जिस 'राम' की चर्चा की वे कोई दशरथ पुत्र राम नहीं थे। कबीर और रैदास तो अस्तित्व के निराकार स्वरूप की बात कर रहे थे जिसको उन्होंने 'राम' के रूप में जाना और उसमें ही निमज्जित हुए। ओंकार, जिसकी नानक ने चर्चा की, अल्लाह जिसकी मोहम्मद ने चर्चा की, प्रेम जिसकी जीसस ने चर्चा की, कैवल्य जिसकी महावीर ने चर्चा की और निर्वाण जिसकी बुद्ध ने चर्चा की ये सब उसी निराकार 'राम' के ही भिन्न नाम हैं जिसकी कबीर और रैदास ने चर्चा की।

आध्यात्मिक मान्यताओं के अनुसार 'राम' कोई कोरा शब्द नहीं है। 'राम' निसर्ग की ध्वनि (cosmic sound) है और ऐसी आध्यात्मिक मान्यता है कि निसर्ग की इसी ध्वनि से, इस दृश्यमान जगत की उत्पत्ति हुई है और यह असीम दृश्यमान जगत उसी निसर्ग की ध्वनि 'राम' का ही फ़ैलाव है। इसीलिए दशरथपुत्र राम न तो कबीर के हो सकते हैं और न ही रैदास के। इसी तरह, कबीर और रैदास भी दशरथपुत्र राम के हो सकते हैं, यह असंभव है। आध्यात्मिक अर्थों में राम स्वयं ही "रामनाम" अर्थात आत्मज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति नहीं थे क्योंकि कोई भी आत्मज्ञान या ब्रह्मज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति वर्णव्यवस्था का समर्थक कभी नहीं हो सकता। उनका सारा जीवन चरित्र इस बात को स्वयं सिद्ध करता है कि वे वर्णव्यवस्था के प्रबल समर्थक और पोषक रहे। इसीलिए जो भी व्यक्ति या समाज वर्णव्यवस्था जैसी अति अमानवीय व्यवस्था का समर्थक हो तो यह निश्चित ही है कि ऐसा व्यक्ति या समाज अपनी चेतना के निम्नतम तल पर जी रहा है। वर्णव्यवस्था का उद्भव और विकास इसी निम्नतम तल की चेतना का परिणाम रहा है। लेकिन इसको तो विकास कहने की बजाए ह्रास कहना ही ज़्यादा उचित होगा। दूसरी ओर, कबीर और रैदास अपनी चेतना के उच्चतम और आत्यंतिक शिखर से बोलते हैं। इसीलिए उन्होंने ब्राह्मणी व्यवस्था को कभी स्वीकार नहीं किया। इतना ही नहीं उन्होंने ब्राह्मणवाद का तीखा विरोध भी किया। इसीलिए दशरथपुत्र राम के साथ कबीर और रैदास का मिलन असंभव है। वे धरती और आकाश की तरह भले ही मिलते हुए दिखाई पड़ते हैं, लेकिन उनका यह मिलन आभासी और आत्मभ्रम के सिवाए और कुछ नहीं। इसीलिए दशरथपुत्र राम, कबीर और रैदास के आश्रय कैसे हो सकते हैं?
 
एक राजा के तौर दशरथपुत्र राम शासकवर्ग के प्रतिनिधि रहे हैं। उनका सारा जीवन भी हमेशा विवादास्पद ही रहा है और आज भी न वे सबके हो सके हैं और न ही सब उनके हो सके हैं। ब्राह्मणी युग में भी वे शासक वर्ग के प्रतिनिधि थे और आज भी उनके वंशजों ने शासकवर्ग के तौर पर 'रामनाम' पर कब्ज़ा करके सत्ता प्राप्त कर ली है। दलित-शोषित श्रमिकवर्ग राम के युग में भी हाशिए पर था और आज भी हाशिए पर ही है।
 
वारिस अली शाह ने ठीक ही कहा है "जो रब है वही राम है"।  इसका विपरीत भी कहा जा सकता है "जो राम है वही रब है"।  लेकिन जो रब या राम है, वह दशरथपुत्र राम नहीं है। वह वही रब है, जो कबीर और रैदास के 'राम' हैं और कबीर और रैदास के राम तो सबके 'राम' हैं और सब उसी 'राम' के हैं। इसीलिए रैदास चमार और कबीर जुलाहे होते हुए भी 'राम' के सके और 'राम' ने भी उनको स्वीकार किया। रब और राम आध्यात्मिक जगत में एक दूसरे के पर्याय रहे हैं। दशरथपुत्र  राम तो आज भी सबके नहीं हो सके हैं और सब उनके नहीं हो पाए हैं। इसीलिए दशरथपुत्र राम आज भी विवाद और आपसी विवादों, तमाम फ़सादों और संघर्षों का सबब बने हुए हैं। यही कबीर और रैदास के 'राम' और तुलसी और गांधी के 'राम' का फ़र्क़ है।

लेखक:  अशोक कुमार

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