क्या शॉल ओढाने या भेट करने की परंपरा मनुवादी हिन्दू परंपरा है?
By Ritu Bhiva February 25, 2022 03:04 0 commentsतथागत बुद्ध ने कहा "पुक्कुस दुशाले में से एक मुझे ओढा दे और एक आनंद को"। तथागत बुद्ध के इन वचनों की याद फिर आई, जब अहमदाबाद महानगर में मौर्य समाज भवन में पधारे संकिसा, उत्तर प्रदेश के क्रान्तिकारी बौद्ध भिक्खु सुमित रत्न जी को उपासकों ने शॉल देकर अभिवादन किया। कुछ लोग कहते है कि शॉल भेट कर स्वागत करना, मनुवादी हिन्दू परंपरा है। इसलिए बौद्धों को चाहिए इस हिन्दू परंपरा से निजात लेना। यह सोच गलत है। तथागत बुद्ध के जीवन की एक घटना हमारे सामने है जो दर्शाती है कि शॉल देकर सम्मानित करना बौद्धों की संस्कृति है। अपने जीवन की अंतिम चारिका करते हुए तथागत वैशाली से चलकर पावा पहुंचे थे। तथागत ने पावा में चुन्द के वहां अंतिम भोजन ग्रहण किया और कुशीनगर की ओर प्रस्थान किया था। तथागत बीमार चल रहे थे।
पावा से कुछ चलने पर वे मार्ग से हटकर एक वृक्ष के नीचे गए। वहां जाकर आनंद के द्वारा बिछाई गई संघाटी पर बैठ गए। तथागत को प्यास लगी थी। आनंद सोना नदी से पानी लाए तथागत ने पानी पीकर प्यास बूझाई।
जिस समय तथागत मार्ग से हटकर एक वृक्ष के नीचे बैठे थे, उस समय आलार कालाम का एक शिष्य पुक्कुस मल्ल कुशीनगर से पावा व्यापार करने के लिए जा रहा था। वह भगवान को देखकर, भगवान के पास आया और प्रणाम कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर पुक्कुस ने आलार कालाम की ध्यान विषयक प्रशंसा की। तब भगवान ने आलार कालाम से बढकर अपनी ध्यानवस्था को बतलाया। भगवान की धम्म वाणी से प्रमुदित होकर पुक्कुस मल्ल ने कहा- भन्ते जो मेरी आलार कालाम में जो श्रद्धा थी, उस में अब मुझे कोई विश्वास नहि है। भगवान, मैं बुद्ध धम्म और संघ की शरण लेता हूं।
तत्पश्चात पुक्कुस मल्ल ने अपने इंगुर के रंगवाले चमकते दुशाले को मंगवाकर तथागत को दान देना चाहा। भगवान ने कहा, पुक्कुस! दुशाले में से एक मुझे ओढा दे और एक आनंद को। पुक्कुस मल्ल ने एक दुशाला तथागत को ओढाया और दूसरी दुशाला आनंद को ओढाया।
यह घटना पर से मालूम होता है कि शॉल ओढाने की परंपरा बुद्ध काल में विद्यमान थी। यह बुद्धों की परंपरा है। इस परंपरागत संस्कृति को बरकरार रखने में कोई दोष नही है। मौर्य समाज के द्वारा भन्ते सुमित रत्न जी के अभिवादन में शॉल दिया वह बौद्ध संस्कृति के अनुरूप है।
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