कौन होते हैं भगवान के दर्जे के हकदार और क्या हैं जाति व्यवस्था?
By Ritu Bhiva May 21, 2022 05:52 0 commentsभगवान के दर्जे के हकदार समाज में फैले हुए अन्याय और अत्याचार को दूर करने के लिए जब कोई बच्चा पैदा होकर अपने जीवन को समर्पित कर दे तो उस महापुरुष को भगवान का दर्जा लोग देते हैं। उन्हीं में से एक डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने समाज में व्याप्त ऊंच - नीच की जाति रूपी बुराई को जड़ से समाप्त करने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। इसलिए इस महापुरुष को ऊंच-नीच की बीमारी से सर्वाधिक पीड़ित लोग अपना भगवान कहने लगे। ऐसे लोग एक दूसरे को सम्मान देने के लिए जय भीम का संबोधन करते हैं।
जाति व्यवस्था दो तरह की होती है
(1) खड़ी हुई जाति व्यवस्था - इस व्यवस्था में एक नीची जाति के अमीर व्यवसायी, रुतबे वाले प्रशासनिक अधिकारी या राजनेता के घर में जन्म लेकर भी उसका बच्चा ऊंची जाति का नहीं बन सकता। उसकी पहचान उसके पिताजी की जाति से की जाती है उसकी संपन्नता से नहीं। ऊंच-नीच पर आधारित जाति व्यवस्था को खड़ी हुई असमानता कहते हैं। इसमें जड़ता होती है, एक पेड़ जिस तरह अपनी जगह पर खड़े होकर सिर्फ ऊपर बढ़ता है आगे पीछे नहीं जा सकता, उसी तरह से जाति व्यवस्था भी ऊपर की तरफ बढ़ती है, आगे पीछे नहीं जाती। इसलिए जाति व्यवस्था जड़ता पर आधारित है क्योंकि इसमें गतिशीलता नहीं है। सर्वोच्च शिखर पर बैठी हुई जाति को उच्च जाति दर्जा प्राप्त है और उससे नीचे की सभी जातियों को नीची जातियों का दर्जा दिया जाता है। हर जाति अपने को शिखर तक ले जाने का प्रयास करती है, परंतु अंत तक नीचे ही बनी रहती है। सर्वोच्च जाति को समाज का सर्वोच्च सम्मान मिलता है और सीड़ीनुमा निचली जातियों को अपनी सीड़ी के स्थान के हिसाब से नीचे की ओर सम्मान में कमी होती जाती है। समाज की निम्नतम जातियों को अस्पृश्य कहा गया था जिसे बाबा साहब के संविधान के अनुच्छेद 17 ने समाप्त कर दिया। आज इन जातियों को अनुसूचित जाति और जनजाति के नाम से पुकारा जाता है और उनके लिए के अनुच्छेद 14-15 के तहत सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था की गई है। अस्पृश्यता समाप्त होने के बावजूद भी ऊंच-नीच की व्यवस्था अब भी जारी है, जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र रूपी चार डिपार्टमेंटों में बंटी हुई है। किसी भी जातीय समुदाय में जन्म लेने वाला बच्चा आजीवन उसी समुदाय का सदस्य बना रहता है और मरने के बाद भी उसी जाति की पहचान पाता है। यही कारण है कि भारत के संविधान निर्माता, भारत रतन से सुशोभित डा. अंबेडकर को सर्वोच्च पढ़ाई लिखाई की ऊंचाइयां छूने के बाद भी उनकी पहचान एक दलित जाति ही है। यह समाज की बड़ी ही भयंकर बीमारी है जो किसी भी दवाई से आज तक दूर नहीं हुई बल्कि कोविड-19 वायरस की तरह से अपना रूप बदलती रहती है, जड़ से खत्म नहीं होती।
(2) पड़ी हुई जाति व्यवस्था - जाति व्यवस्था कोई भी ठीक नहीं है, परंतु फिर भी पड़ी हुई जाति व्यवस्था में गतिशीलता ऊंच-नीच की व्यवस्था से बेहतर है। इसे समानांतर सामाजिक व्यवस्था भी कह सकते हैं जिसमें हर जाति यह पड़ी हुई रेखा के ऊपर खड़ी रहती हैं। उसमें कोई भी अगड़ी या पिछड़ी जाति सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, प्रशासनिक और शैक्षिक हैसियत प्राप्त कर ने या खोने के बाद अपने स्थान को आगे या पीछे की तरफ ले जा सकती है। अतः इस व्यवस्था में परिवर्तनशीलता होती है। लोगों की पहचान ऊंची जातियां या नीची जातियों के स्थान पर अगड़ी जातियां पिछड़ी जातियों के रूप में होती है। मान्यवर कांशीराम जी एक पैन के माध्यम से उसे खड़ा और पड़ा, आड़ा तथा तिरछा करके समझाया करते थे। 1990 मंडल कमीशन होने के बाद देश में ऊंच-नीच की लड़ाई की जगह अगड़े और पिछड़े की लड़ाई होती दिखती है जिसे राजनीतिक जातिवाद कहा जाता है। इस परिवर्तन के लिए डॉक्टर भीमराव अंबेडकर एवं उनके पूर्व के महापुरुषों तथा उनके अनुयाई मान्यवर कांशीराम जी का संघर्ष सराहनीय है।
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