Babasaheb on 20 March 1927

20 मार्च 1927 को बाबा साहब ने महड़ चावदार तालाब में पानी पीकर दी चुनौती

By Ritu Bhiva March 21, 2022 12:54 0 comments

दो घूट पानी पीकर बाबा साहब ने दी जातिवाद को सबसे बड़ी चुन्नौती, "20 मार्च 1927 को सामाजिक क्रांति के अग्रदूत बाबा साहब डॉ अंबेडकर जी ने शोषित समाज में मान-सम्मान, स्वाभिमान जगाने के लिए,  पानी पीने का अधिकार दिलाने के लिए महाड़ चावदार तालाब जल सत्याग्रह किया था।"  बाबा साहब का उद्देश्य दलितों में उनके मानव अधिकारों के लिए जारूकता पैदा करना था, उन्होंने यह निश्चय किया कि हमारा अछूत समाज इस तालाब से पानी पीकर रहेगा। "दुनियाँ का इतिहास भेदभाव-जुल्म और इसके विरुद्ध संघर्ष का इतिहास है" अधिकांशतः ये भेदभाव या जुल्म किसी राजा या सरकार द्वारा जनता पर किए गए हैं, और जनता ने इस भेदभाव जुल्म के विरुद्ध संघर्ष भी किया है,  लेकिन दुनियाँ में कई हिस्से ऐसे हैं, जहां सिर्फ राजाओं और शासकों ने नहीं,  पूरे के पूरे समुदाय ने दूसरे समुदाय पर अत्याचार किए,  भारत में ब्राह्मणवादी व्यवस्था द्वारा दलितों-पिछड़ों को संस्थागत रूप से संसाधनों से वंचित किया गया,  एक वर्ग को अछूत घोषित किया गया,  उन पर जुल्म ढाए गए,  ब्रिटिश राज में अछूतों को शिक्षा और सम्पत्ति का अधिकार मिलने से उनके अंदर अधिकारों के लिए चेतना पैदा हुई,  जिससे वे अपने मानवीय अधिकारों की मांग करने लगे,  इसी मांग का परिणाम था "सन् 1927 में महाड़ का आंदोलन यह आंदोलन ऐसा है जिसे भारतीय इतिहास में लम्बे समय तक याद रखा जायेगा"  यह आंदोलन इसलिए शुरू हुआ क्योंकि अछूतों को सार्वजनिक स्थान से पानी पीने की मनाही थी।

महाड़ पश्चिम महाराष्ट्र में कोकण क्षेत्र में एक क़स्बा है, जिसकी आबादी उस समय लगभग सात हज़ार थी,  इसी महाड़ कस्बे में चावदार तालाब है,  उस तालाब में सवर्ण हिन्दू नहा सकते थे, कपड़े धो सकते थे,  किन्तु दलित वहां प्रवेश नहीं कर सकते थे,  1920 के दशक में डा.आंबेडकर लंदन से बैरिस्टर बनकर वापस लौटे थे,  वे 1926 में बम्बई विधान परिषद के सदस्य भी बने थे,  इस समय तक उन्होंने सामाजिक कार्यों और राजनीति में सक्रिय भागीदारी शुरू कर दी थी। "बाबा साहेब ने अपने समाज को बताया कि सार्वजनिक स्थान से पानी पीने का अधिकार एक मूलभूत अधिकार है"  1923 में बम्बई विधान परिषद ने एक प्रस्ताव पास किया कि सरकार के द्वारा बनाये गए और पोषित तालाबों से अछूतों को भी पानी पीने की इजाजत है, "1924 में महाड़ नगर परिषद ने इसे लागू करने के लिए एक प्रस्ताव भी पास किया,  फिर भी अछूतों को स्थानीय सवर्ण हिन्दुओं के विरोध के कारण पानी पीने की इजाजत नहीं थी"  बाबा साहेब का उद्देश्य दलितों में उनके मानव अधिकारों के लिए जारूकता पैदा करना था, "उन्होंने यह निश्चय किया कि हमारा अछूत समाज इस तालाब से पानी पीकर रहेगा।"

इसके लिए दो महीने पहले एक सम्मेलन बुलाया गया,  लोगों को गांव-गांव भेजा गया कि 20 मार्च 1927 को हम इस तालाब से पानी पीयेंगे,  लोगों को इकठ्ठा किया गया,  एक पंडाल लगाया गया,  जिसमें अच्छी-खासी भीड़ इकठ्ठी हुई,  काफी दूर-दूर से लोग आये,  बाबा साहेब की जीवनी लिखने वाले धनंजय कीर का मानना है कि लगभग 10,000 लोग वहां थे,  जबकि प्रसिद्ध विद्वान गेल ओमवेट और एलिनर ज़ेलिओट का मानना है कि 1500 से 2500 के बीच लोग आए थे,  उस पंडाल के लिए जमीन एक मुसलमान ने दी,  सवर्ण हिन्दुओं ने उस मुसलमान पर दबाब भी डाला कि ऐसे सम्मेलन के लिए जमीन मत दो,  फिर भी उन्होंने अपनी जमीन दी।  

"सम्मेलन में बाबा साहब अम्बेडकर ने अछूतों की भीड़ के सामने ओजस्वी भाषण दिया कि हमें गंदा नहीं रहना है,  साफ़ कपड़े पहनने हैं,  मरे हुए जानवर का मांस नहीं खाना है,  हम भी इन्सान हैं और दूसरे इंसानों की तरह हमें भी सम्मान के साथ रहने का अधिकार है"।

उन्होंने कहा कि इस तालाब के पानी को पीकर हम अमर नहीं हो जायेंगे,  लेकिन पानी पीकर हम दिखाएंगे कि हमें भी इस पानी को पीने का अधिकार है,  जब कोई बाहरी इंसान या जानवर भी इस तालाब का पानी पी सकता है,  तो हम पर रोक क्यों?  बाबा साहेब ने इस आंदोलन की तुलना फ्रांसीसी क्रांति से की,  ध्यान रहे कि फ्रांसीसी क्रांति समाज के सामंतवादी वर्ग और धार्मिक रूप से विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के विरोध में हुयी,  फ्रांसीसी क्रांति ने पूरी दुनियाँ को स्वतंत्रता,  समानता और बंधुत्व का मार्ग दिखाया। बाबा साहेब ने अपने भाषण में आगे कहा कि, "यह समाज की पुनर्संरचना का प्रयास है,  सामंतवादी समाज और उसकी असमानता को मिटाने का प्रयास है,  स्वतंत्रता,  समानता और बंधुत्व पर आधारित नए समाज को बनाने का प्रयास है"  भाषण के बाद डा. अम्बेडकर हज़ारों अनुयायियों के साथ चावदार तालाब गए, और वहां पानी पिया।

यह प्रोटेस्ट पूर्णतया शांतिपूर्ण था,  लेकिन अपने उद्देश्यों में बड़ा था,  क्योंकि यह सदियों से स्थापित ब्राह्मणवादी वर्चस्व को चुनौती दे रहा था,  इस आंदोलन की प्रतिष्ठा बहुत है,  "इसीलिए 20 मार्च को प्रतिवर्ष मानव गरिमा दिवस या अस्पृश्यता निवारण दिवस के रूप में मनाया जाता है, आगे चलकर यह आंदोलन दलितों की मुक्ति संघर्ष का आधार बना"

अमेरिका में ऐसा ही आंदोलन मार्टिन लूथर किंग ने किया था,  उनका कहना था कि काले लोगों को सभी सड़कों पर चलने का हक होना चाहिए,  उन्हें सभी बसों में सफर का,  किसी भी रेस्टारेंट में जाने का और सभी पब्लिक स्कूलों में पढ़ने का भी हक होना चाहिए,  इसके लिए मार्टिन लूथर ने अगस्त 1963 एक मार्च किया जिसे वाशिंगटन मार्च के नाम से जाना जाता है, वहां उन्होंने अपना प्रसिद्ध भाषण दिया। "मेरा एक सपना है"  मार्टिन लूथर किंग के इस भाषण की तुलना बाबा साहेब के उस भाषण से की जा सकती है,  जो उन्होंने महाड़ सत्याग्रह के समय दिया था।

लेकिन अमेरिका और भारत में इस समस्या को हल करने में अंतर है,  अमेरिका में काले लोगों के आंदोलन में गोरे खूब हिस्सा लेते हैं,  काले लोगों के साथ सम्मान के साथ व्यवहार करने में गोरे लोग उदार है, "जबकि भारत में आज भी अधिकांश सवर्णो की मानसिकता नहीं बदली है" मीडिया, फिल्म इंडस्ट्री से लेकर खेलों तक में वहां काले लोग उनकी आबादी के अनुपात में देखने को मिल जायेंगे,  किन्तु भारत में अभी भी दलितों को उनकी आबादी के अनुपात में हिस्सा नहीं मिला है।

0 Comments so far

Jump into a conversation

    No comments found. Be a first comment here!

Your data will be safe! Your e-mail address will not be published. Also other data will not be shared with third person.
All fields are required.