तथागत के द्वारा दिए गए उपदेशो को तीन भागों में बांट कर संग्रहित किया गया है- सुत्त पिटक, विनय पिटक और अभिधम्म पिटक। उनके प्रमुख शिष्यों ने बुद्ध वाणी अक्षर सह कंठस्थ किया और इसे संगिति में प्रस्तुत किया, जैसे - "एवं मे सुत्तं" अर्थात ऐसा मैंने सुना। जहां-जहां तथागत ने उपदेश दिया उसी विहार,गांव, कस्बा, नगर, देश आदि के उल्लेख उन सुत्तों में मिलता है। श्रावस्ती स्थित जेतवन विहार का नाम अनेक बार इन सुत्तो में आता है।
जेत नाम है राजकुमार का।
एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिंडकस्स आरामे।
जेत राजकुमार का बगीचा था इसलिए जेतवन नाम से प्रसिद्ध है। सुदत्त नाम के श्रेष्ठी अपनी दान पारमीता के कारण अनाथपिंडक नाम से प्रसिद्ध है। सुदत्त यानी अनाथपिंडक के द्वारा बगीचे का मूल्य दिया और जेत राजकुमार ने जमीन के थोड़े हिस्से का दान दिया, इसलिए श्रावस्ती स्थित महाविहार को 'अनाथपिंडकस्स जेतवन विहार' नाम से जाना जाता है। दान पारमीता का उत्तम उदाहरण है जेतवन विहार।
श्रावस्ती का श्रेष्ठि सुदत्त राजगृह में भगवान के संपर्क में आया। उसके पुण्य कर्म जाग उठे। भगवान को श्रावस्ती में वर्षावास करने के लिए निमंत्रण दिया। श्रावस्ती (वर्तमान बलरामपुर से 15 किमी दूर बहराइच रोड स्थित, यु. पी. ) पहुंच कर भगवान के विहार के लिए योग्य स्थान की खोज करते-करते उसे जेत राजकुमार का बगीचा पसंद आया क्योंकि - वह उद्यान, श्रावस्ती से न अति दूर था, न अति समीप, वहां आने-जाने की सुविधा थी और ध्यान के लिए अनूकूल था। सभी प्रकार से अनुकूल दिख पडने पर सुदत्त श्रेष्ठि यह बगीचा खरीदने के लिए राजकुमार जेत के पास गया। राजकुमार अपना बगीचा नहीं बेचना चाहता था। उसने सुदत्त को टालने के लिए उसकी क़ीमत "कोटि सन्थर"बता दी। सुदत्त ने राजकुमार की जबान पकड ली और तत्क्षण सौदा पक्का कर लिया। कोटि सन्थर का अर्थ था - करोडो का बिछावन।
उस जमाने में बोलचाल की भाषा में इसका मतलब था, बगीचे की सारी भूमि पर एक किनारे से दूसरे किनारे तक सोने के सिक्कों की बिछावन करनी। श्रेष्ठि सुदत्त ने यही किया। गाडियों में सोना भर-भर कर लाया और उसने बगीचे के एक छोर से दूसरे छोर तक बिछाना शुरू कर दिया। जेत राजकुमार यह सब देख कर भौचक्का रह गया। उसने सोचा, अवश्य इस भूमि पर कोई महत्वपूर्ण कार्य होने जा रहा हैं। उनके भी पुण्य कर्म जाग उठे। जमीन का एक कोना अभी सोना बिछाये जाने से बचा था, राजकुमार ने कहा।
"अलं गहपति, मा तं ओकासं सन्थरापेसि"
- बस कर गहपति, इस खाली जमीन को मत ढक।
"ममेतं दानं भविस्सति"
- यह मेरा दान हो।
हजारों साल से अनाथपिंडक के द्वारा भिक्खुसंघ को जेतवन विहार के नाम से दान दिया। उसी जेतवन विहार में तथागत ने 24 वर्षावास किए। यहां तथागत द्वारा दिए गए उपदेश आज भी प्रेरणा मानव के कल्याण के लिए प्रासंगिक है। महामंगल सुत्त में बताए गए 38 मंगल बहुत मंगलकारी है। जो जन उन 38 मंगल का आचरण करते है उनको निर्वाण की प्राप्ति होती है। दान पारमीता का यह अमर इतिहास सब को प्रेरणा देता है। ऐतिहासिक जेतवन विहार के लिए दान देने वाले सुदत्त श्रेष्ठी (अनाथपिण्डिक) और जेत राजकुमार की पुण्य स्मृति हमें दान पारमीता बढ़ाने और बार- बार दान देने की प्रेरणा दें।
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