मायावती की खामोशी के असल मायने क्या हैं? क्या यह खामोशी रणनीतिक है? यूपी चुनाव के मतदान की तारीख जैसे-जैसे नजदीक आ रही है, मायावती के पत्ते धीरे-धीरे खुल रहे हैं। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) प्रमुख मायावती की खामोशी पर लगातार सवाल उठते रहे हैं। ज्यादातर लोगों का मानना है कि ईडी और सीबीआई के डर से मायावती भाजपा सरकार की नाकामियों पर चुप्पी साधे रही हैं। खामोशी के कारण ही कुछ लोगों ने मायावती को भाजपा की 'बी' टीम तक करार दिया है। ऐसा मानने वाले कहते हैं कि मायावती अंदरखाने मोदी-शाह से मिली हुई हैं। इसीलिए उनका मानना है कि बसपा को वोट देने का मतलब है भाजपा का समर्थन करना।
खैर सभी राजनीतिक दल अपने राजनीतिक उत्थान के लिए दांव पेंच खेलते हैं। माना जाता है कि राजनीति में कोई किसी का न तो स्थायी शत्रु होता है और ना ही स्थायी मित्र। मायावती का राजनैतिक अतीत और उनका व्यक्तित्व इस बात की ताकीद करता है कि वह कभी किसी राजनीतिक दल की पिछलग्गू नहीं रही हैं। एक प्रमाण यह कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में उन्होंने अब तक समर्थन लिया है किसी पार्टी को समर्थन दिया नहीं है। भाजपा के समर्थन से वे तीन बार मुख्यमंत्री बनी हैं लेकिन अपनी शर्तों पर। जब भाजपा ने उनका इस्तेमाल करना चाहा तो वे गठबंधन से बाहर आ गईं। इसलिए यह कहना कि मायावती भाजपा की मदद करने के लिए चुनाव में मुखर नहीं है या सीबीआई-ईडी के डर से वे भाजपा का समर्थन करेंगी किसी भी लिहाज से तार्किक नहीं लगता।
मायावती की खामोशी के असल मायने क्या है? क्या यह खामोशी रणनीतिक है? यूपी चुनाव के मतदान की तारीख जैसे-जैसे नजदीक आ रही है, मायावती के पत्ते धीरे-धीरे खुल रहे हैं। पिछले 15 दिन में बसपा अचानक चुनावी मुकाबले में मजबूत प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरी है। इसका सबसे बड़ा कारण खामोशी के साथ बनाई गई मायावती की रणनीति है। आज यूपी की सक्रिय राजनीति में सिर्फ मायावती ही हैं जिन्हें 403 विधानसभा के जातिगत समीकरण बखूबी मालूम हैं। वे प्रत्येक विधानसभा के जातिगत गणित और रसायन को भली-भांति जानती हैं। इसीलिए उन्होंने पिछले 4 माह के भीतर प्रत्येक विधानसभा पर सामाजिक समीकरणों के अनुसार मजबूत प्रत्याशी उतारे और अपने कैडर को सक्रिय किया। इसका ही नतीजा है कि आज बसपा लड़ाई में दिखने लगी है।
दरअसल मायावती द्वारा राजनीतिक चौसर पर बिछाई गई बिसात की परतें अब खुलने लगी हैं। पहली बात खामोश रहकर उन्होंने बसपा के प्रति किसी भी किस्म की नाराजगी या नकारात्मक भावना को पनपने नहीं दिया। भाजपा से पुराने समर्थन के इतिहास के अलावा आज उनके ऊपर कोई आरोप नहीं है। खामोशी अख्तियार करके उन्होंने सपा और भाजपा दोनों को अपने जाल में फंसाया। अखिलेश यादव और भाजपा के कथित चाणक्य को यह लगा कि मायावती की राजनीति अब ढलान पर है। इसलिए बसपा के जनाधार को अपने पाले में लाया जा सकता है। परिणामस्वरूप दोनों पार्टियों ने 11 फ़ीसदी तादात वाले जाटव समुदाय को अपने साथ लाने की पुरजोर कोशिश की। अखिलेश यादव ने पार्टी कार्यालय में बाबा साहब डॉ. आंबेडकर की तस्वीर लगाकर तमाम बसपा से आए जाटव नेताओं को पार्टी में शामिल किया। इन नेताओं ने अखिलेश को जाटव वोटों का लालच देकर पार्टी के संगठनों में बड़े ओहदे प्राप्त किए। साथ ही सुरक्षित सीटों पर सबसे ज्यादा भागीदारी प्राप्त की। अखिलेश यादव ने दूसरी गैर जाटव जातियों मसलन, कोरी, धोबी, वाल्मीकि, सोनकर और धानुक नेताओं को कोई तवज्जो नहीं दी। इसी तरह भाजपा ने जाटव वोटर को आकर्षित करने के लिए उत्तराखंड की पूर्व राज्यपाल और आगरा की पूर्व मेयर बेबीरानी मौर्य जाटव को चुनाव में पार्टी का बड़ा चेहरा बनाया। उनके अतिरिक्त कई और बसपा से आए नेताओं और पूर्व प्रशासनिक जाटव अधिकारियों को पार्टी में शामिल करके टिकट दिए। भाजपा ने अपने पुराने सोशल इंजीनियरिंग को भूला दिया। यही भूल अखिलेश यादव कर बैठे।
मायावती की एक अपील पर जाटव समाज उनके साथ खड़ा हो जाता है। दलितों की राजधानी कहे जाने वाले आगरा में मायावती ने अपनी पहली चुनावी सभा में सपा, कांग्रेस और भाजपा पर तीखे प्रहार करके जाटव समाज को फिर से गोलबंद कर लिया। 2014, 2017 और 2019 के चुनावों में भाजपा ने गैर जाटव समाज को प्राथमिकता दी थी। जाटव के खिलाफ भाजपा के नफरती प्रचार के कारण इन जातियों ने भाजपा का समर्थन किया। लेकिन दलितों के उत्पीड़न, आरक्षण पर प्रहार, महंगाई और बेकारी की मार के कारण आज ये जातियां भाजपा से खफा हैं। ऐसे में ज्यादातर लोग सपा के साथ जाना चाहते थे। लेकिन मायावती ने इस बार जाटवों के साथ-साथ कोरी, वाल्मीकि, पासी, धोबी, सोनकर, धानुक आदि जातियों के प्रतिनिधियों को बड़ी तादात में प्रत्याशी बनाया है। उन्होंने कई सामान्य सीटों पर दलित प्रत्याशी उतारकर बड़ा दांव खेला है।
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