पता नही क्यों, मुझे ऐसा लगता है कि स्वतंत्रता के 72 साल बाद भी, समता, समानता, वन्धुत्व और वैज्ञानिक सोच पर आधारित सम्विधान, जो मूलतः 85% शूद्रों के हक और अधिकार की ही बात ज्यादा करते आ रहा है। इसके बावजूद भी आज के देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दुर्दशा के लिए कुछ हदतक ब्राह्मणों से ज्यादा शूद्र ही जिम्मेदार नजर आ रहे हैं।
मैं देख रहा हूं कि शूद्रो में, आपस में ही एक दूसरे से उच्च होने की जाति की उच्चता का घमंड सभी को है, लेकिन ब्राह्मण से नींच होने का दर्द किसी को भी नहीं महसूस होता है। अब तो बड़े बड़े महापुरुषों की, जिनकी अब तक जाति नही मालूम थी, पूरा शूद्र समाज मान सम्मान देता था, उसकी भी जाति खोजकर अपने-अपने प्रदेश में जाति सरनेम लगाना शुरू कर दिया है। कुछ उदाहरण जैसे सोशल मीडिया में नाम देखा रामास्वामी, नायकर, पाल तथा कुछ समय पहले दिनांक 05-01-2020 को, वाराणसी में माता सावित्री बाई फुले की शानदार जयंती मनाई गई थी। मुझे एक पाल भाई साहब से ही मालूम पड़ा कि, 4-5 पाल बिरादरी के शूद्र वहां गये थे, लेकिन बैनर पर रामास्वामी नायकर का फोटो नहीं लगने से नाराज़ होकर प्रोग्राम का आनंद लिए बिना वापस लौट गए थे। यह जानकार बहुत अफसोस हुआ। एक सवाल है, अभी तक आप कहां सोए थे। पाल पेरियार की विरासत भी एक यादव ललई सिंह यादव कैसे ले लिया? अपनी जाति के बन्धन में रखना तो आप चाहते है, लेकिन उनके विचारों को अमल नही करना चाहते हैं। क्या सभी पाल विरादरी अपने-अपने घरों से तथाकथित भगवानों, देवी देवताओं को बाहर कर दिया है? जब तक आप यह नहीं कर पाते हैं तब तक सिर्फ जातीयता के कारण उन पर अधिकार जमाने का भी आप का हक नहीं है। वही दूसरी तरफ पेरियार ललई सिंह यादव जिनकी जयन्ती बहुत से संस्थाओं नें मनाया, लेकिन मुम्बई में 40-50 यादव समाज की रजिस्टर्ड संस्थाएं है, किसी नें भी उनकी जयन्ती नहीं मनाई। जानते है मूर्खता भरा कारण क्या है? वह अब यादव नही है, मरने से पहले बौद्ध धर्म अपना लिया था। यह भी सही है कि मान्यवर कांशीराम जी ने पेरियार रामास्वामी नायकर और पेरियार ललई सिंह यादव को इतिहास में फिर से जिन्दा किया है।
बहुत से साथी करीब पांच सालों से "गर्व से कहो हम शूद्र है" मिशन से सिर्फ यही एहसास दिलाना चाहते है कि, शूद्रो आप हर कसौटी पर ब्राह्मण से उच्च हैं, लेकिन समझने के बाद भी पता नही क्यों, उनको इसमें मजा नहीं आता है। कूआं के मेढक की तरह कूदकर फिर से जाति की उच्चता और नींचता की मानसिकता में ही मजा लेने लगता है। सिर्फ आप, अपने आप को ज्यादा नही, सिर्फ 200 साल पहले अपने पूर्वजों की जगह पर अपने-आप को रख कर, महसूस कीजिए, दर्द का एहसास कीजिए, चौबीस घंटे सिर्फ काम ही काम, वह भी सिर्फ पेट पर, रात दिन खून पसीना बहाकर, जीवनोपयोगी वस्तुओं का उत्पादन कर, सभी प्राणी जाति की इमानदारी से सेवा करते आ रहे हैं। खुद आत्मनिर्भर होकर देश व समाज की सभी धरोहर को बनाते और सम्हालते आ रहे हैं। देश और समाज को सब कुछ दिया है, कभी बदले में कुछ मिला नहीं। क्या आप का जमीर यह सब जानने के बाद भी मानने को तैयार है कि, आप के पूर्वज नींच, दुष्ट,पापी थे। सच्चाई है नहीं थे, तो कब तक इस अपमान को खुद सर पर ढोते रहोगे? और फिर आने वाले जनरेशन को भी ट्रांसफर करते रहोगे? कब तक?
आज आप को सिर्फ मनुवादी संविधान की याद, कोई दिलाता है तो आप अपना आपा खो बैठते हो, सोचिये, कल्पना कीजिए, जिनपर यह व्यवस्था गुजरी होगी, उनका क्या हाल रहा होगा, सोचकर ही रोंगटे खडे हो जाते है। संविधान संरक्षण से जब आज कोई आप को अपशब्द कह देता है तो, आप बौखलाहट में बदला लेने की सोचने लगते हैं, लेकिन वही जब पूरे शूद्र समाज को कलंकित करते हुऐ, सैकड़ों साल पहले नींच, दुष्ट कहा और दुर्भाग्य से मजबूरी में, अज्ञानता बस, उन्होंने स्वीकार कर लिया, जो आगे चलकर एक षणयंत्र के तहत धार्मिक परम्परा बना दी गई, जो आजतक जारी है।
आज हम सभी जानते हैं कि, यह हमारे लिए अभिशाप व कलंक है। यह भी सही है कि, शूद्र जब तक नींच बना रहेगा, तब तक उसके अंदर आने वाली सभी जातियां भी नींच बनी रहेंगी। यह प्रवृत्ति आप के द्वारा ही पोषित है, सीधे अब ब्राह्मण आप को नींच नहीं कहता है। आप खुद ही ऐसी मानसिकता से ग्रसित है। अब समय की पुकार है कि, अपने दादा -परदादा के अपमान का बदला लेने के लिए, वर्तमान में अपने मान-सम्मान के लिए और भविष्य में हमारे बच्चों को ऐसी जलालत न देखना पडे, इसके लिए सिर्फ और सिर्फ अपनी मानसिकता को बदलना ही होगा।
इसके लिए न तो आप को कोई धरना-प्रदर्शन, सत्याग्रह, मोर्चा और न तो धन दौलत की ही जरूरत है। किसी को कोई तकलीफ देने की भी जरूरत नहीं है। सिर्फ विचार परिवर्तन एक-दूसरे से कहते और समझाते हुए करना है। आत्मसम्मान से बढ़कर कुछ भी नही है। ब्राह्मण सिर्फ आत्मसम्मान की वजह से ही पूरे देश पर राज कर रहा है, जिस दिन आप का मान-सम्मान गौरवान्वित होगा, उस दिन आप का पूरे देश पर राज होगा। शुद्र होने का गर्व खुद महसूस करें। यदि आप का कोई साथी या दोस्त ब्राह्मण है, तो उससे बडे़ प्यार से निस्संदेह पूछिए कि, सर जी आप उच्च और मैं नींच कैसे हो गया? जरा आप हमें समझाइए। तार्किक सवाल जवाब कीजिए। इससे आप का कॉन्फिडेंस मजबूत होगा और ब्राह्मण से उच्च होने का एहसास भी प्रबल होगा।
कुछ साल पहले की बात है, टीवी में एक सीरियल आया करता था। इस समय सीरियल और चैनल दोनों का नाम भी मुझे याद नहीं है, जिसमें हर दिन एक नई कहानी आया करती थी और उसमें मुख्य भूमिका अदा करने वाला पात्र समाज सुधार के लिए समाज में निकलता था। लोगों को समझाता था, लेकिन लोग उसकी बात मानने के बजाय उसका उपहास उड़ाते थे और उसके साथ अच्छा व्यवहार भी नहीं करते थे। अंत में अपना इरादा सफल ना होते देख थककर (शारीरिक एवं मानसिक दोनों तरह से )वह यह कहते हुए यह काम अब नहीं करूंगा, अपने कान पकड़ता था, लेकिन अगले ही दिन वह समाज सुधार की दूसरी कहानी बुलंद इरादों के साथ लेकर आ जाता था। पिछली घटनाओं को भूल जाता था। एक ही उद्देश्य समाज को हितकारी सत्य के दर्शन कराना, बुलंद इरादे, अथक प्रयास जैसे जीवन का उद्देश्य था। उसका.यह टीवी सीरियल श्रीमान शूद्र शिवशंकर सिंह यादव जी की यह पोस्ट ,साथ ही अब तक की अन्य पोस्टो को भी पढ़कर अनायास ही याद आ गया। समाज सुधार हेतु आज अनेकानेक महानुभाव गण समाज में प्रयासरत हैं। उनका उद्देश्य निष्पक्ष है। समाज को उसके सुसंस्कृत एवं समृद्ध शाली होने के एक ही सुनहरा सपना उनकी सोच में है। उनकी आंखों में है, उनके कार्य में है। मेरी अनुभूति के अनुसार उन आदरणीय जननायकों में श्रीमान शूद्र शिवशंकर सिंह यादव जी आप एक हैं। अब तक के विचार-विमर्श से, मैं इस क्षेत्र में अपने लगभग 43 साल के अनुभव के आधार पर, आज कह सकता हूं, ऐसे बहुमूल्य, बहु आयामी प्रयासों का असर केवल एंड केबल धार्मिक (भले चाहे धर्म भ्रामक क्यों ना हो) मस्तिष्क मे हो सकता है और यह केवल मन के द्वारा ही स्वीकार और अस्वीकार किया जाता है। मुझे यहां यह बात कहने में बिल्कुल भी संकोच नहीं है कि जो मन- मस्तिष्क सत्य-असत्य, हितकारी- अहितकारी के तर्क-वितर्क की उथल-पुथल नहीं रखता, अर्थात नए विचार स्वीकार नहीं कर सकता है, तब यही माना जाएगा की वह पूरी तरह से अपने पूर्व विचारों से भरा पड़ा है। जब तक पूर्व विचारों को वह बाहर नहीं निकालता, तब तक सत्य की कसौटी पर कसकर नए विचार उसके मस्तिष्क में नहीं जा सकते। पुराने विचारों को बाहर निकालने की ऐसे प्रयास चौतरफा हो रहे हैं, लेकिन पुराने विचारों का दलदल समंदर से भी गहरा मालूम पड़ता है। लगता है यह पीढ़ी ऐसी ही है, लेकिन प्रयास इस समय यह होना चाहिए कि हम अगली पीढ़ी में इस तरह के संस्कारों को कतई भी नहीं जाने दे। जब ऐसे संस्कार ही नहीं जाएंगे, तब उस जनरेशन का समाज एक नया समाज दिखाई देगा। हमें अपने इस परम ध्येय उद्देश्य की प्राप्ति के लिए, यह मानते हुए कि हमारे जीवन का यही सार्थक उद्देश्य है, लगे रहना चाहिए। सफलता अवश्य मिलेगी, अवश्य मिलेगी।
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