शिक्षा के अग्रदूत महात्मा ज्योतिबा राव फुले का जीवन संघर्ष
By Ritu Bhiva April 11, 2022 11:30 0 commentsमहात्मा ज्योतिबा फुले (Mahatma Jyotiba Rao Phule) का जन्म 11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में शूद्र वर्ण की 'माली' जाति में हुआ था। जिन्हें ‘मनुस्मृति’ के विधान के हिसाब से न शिक्षा प्राप्त करने की आजादी थी और न अपनी मर्जी का पेशा चुनने की। लेकिन वक्त बदल चुका था। ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) द्वारा भारत में ‘दासता उन्मूलन अधिनियम-1833’ और मैकाले द्वारा प्रस्तुत ‘मिनिट्स ऑन एजुकेशन’ (1835) लागू किये जा चुके थे। यह मनुस्मृति-आधारित सामाजिक व्यवस्था को बदलने वाली एक महान पहल थी जिसमें जॉन स्टुअर्ट मिल की उल्लेखनीय भूमिका रही।
1848 में मात्र 21 वर्ष की अवस्था में उन्होंने सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया। वर्ष 1840 में उनका विवाह मात्र 9 वर्ष की सावित्रीबाई फुले (Savitribai Phule) से हुआ। वे पढ़ना चाहती थीं। परंतु उन दिनों लड़कियों को पढ़ाने का चलन नहीं था। शिक्षा के प्रति पत्नी की ललक देख जोतीराव फुले ने उन्हें पढ़ाना शुरू कर दिया। लोगों ने उनका विरोध किया। परंतु फुले अड़े रहे। तीन वर्षों में पति-पत्नी ने 18 स्कूलों की स्थापना की। उनमें से तीन स्कूल लड़कियों के लिए थे।
24 सितंबर, 1873 को पुणे में, सत्य शोधक समाज की स्थापना के मौके पर आए प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए महात्मा फुले ने कहा था - ‘अपने मतलबी ग्रंथों के सहारे हजारों वर्षों तक शूद्रों को नीच मानकर ब्राह्मण, भट्ट, जोशी, उपाध्याय आदि लोग उन्हें लूटते आए हैं। उन लोगों की गुलामगिरी से शूद्रों को मुक्त कराने के लिए, सदोपदेश और ज्ञान के द्वारा उन्हें उनके अधिकारों से परिचित कराने के लिए तथा धर्म और व्यवहार संबंधी ब्राह्मणों के बनावटी और धर्मसाधक ग्रंथों से उन्हें मुक्त कराने के लिए सत्यशोधक समाज की स्थापना की गई है।’
सत्यशोधक समाज एक तरह से ब्राह्मण संस्कृति या हिन्दू धर्म को नकारने जैसा प्रयास था। जिसके प्रभाव में आकर लोगों ने पुरोहितों से किनारा करना शुरू कर दिया।
आधुनिक भारत के इतिहास में 19वीं शताब्दी सही मायनों में परिवर्तन की शताब्दी थी। अनेक महापुरुषों ने उस शताब्दी में जन्म लिया। उनमें से यदि किसी एक को ‘आधुनिक भारत का वास्तुकार’ चुनना पड़े तो वे महात्मा ज्योतिबा फुले ही होंगे। उनका कार्यक्षेत्र व्यापक था। स्त्री शिक्षा, बालिकाओं की भ्रूण हत्या, बाल-वैधव्य, विधवा-विवाह, बालविवाह, जातिप्रथा और छूआछूत उन्मूलन, धार्मिक आडंबरों का विरोध आदि ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जहां उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज न कराई हो। 28 नवम्बर, 1890 को महात्मा ज्योतिराव फुले का निर्वाण हो गया।
डॉ. आंबेडकर ने 10 अक्तूबर, 1946 को अपनी चर्चित रचना "शूद्र कौन थे?" को महात्मा फुले के नाम समर्पित करते हुए लिखा है, कि "जिन्होंने हिन्दू समाज की छोटी जातियों को उच्च वर्णों के प्रति उनकी गुलामी के सम्बन्ध में जागृत किया और जिन्होंने विदेशी शासन से मुक्ति पाने से भी सामाजिक लोकतंत्र (की स्थापना) अधिक महत्वपूर्ण है, इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया, उस आधुनिक भारत के महानतम शूद्र महात्मा फुले को सादर समर्पित"। डॉ. अम्बेडकर ने उन्हें अपना गुरु मानते हुए कहा हैं कि यदि इस धरती पर महात्मा फुले जन्म नही लेते तो अम्बेडकर का भी निर्माण नही होता।
महान समाज सुधारक की महान पत्नी "सावत्री"
3 जनवरी, 1831 को खन्दोजी नेवसे के घर सावित्री बाई का जन्म हुआ। 1840 में 9 वर्ष की उम्र में सावित्री का विवाह ज्योति राव फुले के साथ हो गया था। उनका जीवन साथी एक आदर्श पुरूष था। जो महिलाओं की शिक्षा का समर्थक था। जिसने सावत्री को स्वयं पढ़ाकर शिक्षिका बनाया।
जब महात्मा ज्योतिबा फुले को उनके रूढ़िवादी पिता ने घर से निकाल दिया था, तब उस्मान शेख ने महात्मा फुले को रहने के लिए घर दिया और उनके शिक्षा कार्य को बढ़ाने के लिए अपनी बहन फातिमा शेख को सावत्री बाई फुले की सहायता के लिए शिक्षिका बनाया। सावित्री बाई फुले भारत की पहली शिक्षिका थीं। 1848 से लेकर 1852 के बीच केवल चार साल की अवधि में उन्होंने 18 स्कूल खोले थे।
महात्मा ज्योतिबा फुले और सावत्रीबाई फुले दुनिया के इतिहास में अदभुत पति पत्नी हुए हैं, जो दोनों ही महान समाज सुधारक रहे हैं। 28 नवम्बर 1890 को महात्मा ज्योतिबा फुले की मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों के साथ सावित्रीबाई फुले ने भी सत्य शोधक समाज को दूर-दूर तक पहुँचाने, अपने पति महात्मा ज्योतिबा फुले के अधूरे कार्यों को पूरा करने व समाज सेवा का कार्य जारी रखा। सन् 1897 में पुणे में भयंकर प्लेग फैला। प्लेग के रोगियों की सेवा करते हुए सावित्रीबाई फुले स्वयं भी प्लेग की चपेट में आ गईं और 10 मार्च सन् 1897 को उनका निधन हो गया।
जिस समाज की भलाई के लिए सावत्री बाई फुले ने पूरा जीवन लगा दिया उसी अज्ञानी रूढ़िवादी समाज ने बदले में उनका तिरस्कार किया, उपहास उड़ाया, उन पर कीचड़ गोबर तक फेंका गया। लेकिन सही मायने में समता ममता शिक्षा की साक्षात देवी सावत्रीबाई फुले ने उनकी अज्ञानता पर दया करते हुए समाज सेवा का कार्य निरन्तर जारी रखा।
सामाजिक क्रांति के प्रेरणा स्रोत ज्योतिबा फुले
यदि हमें आंदोलन की दृष्टि से महात्मा ज्योतिबा फुले के जीवन संघर्ष से प्रेरणा लेकर बहुजन मिशन को उसके लक्ष्य तक पहुंचना है तो हमें क्रांति की तीन पूर्व शर्तों पर ध्यान केंद्रित करना होगा:
1. आत्मसम्मान को जगाकर विद्रोही बनना- क्रांति की पहली शर्त है अपने आत्मसम्मान को जगाकर विद्रोह खड़ा करना। महात्मा ज्योतिबा फुले अपने ब्राह्मण दोस्त की शादी से अपमानित करके इसलिए भगा दिए जाते हैं कि वह ब्राह्मण बारात में दूल्हे के साथ आगे आगे चल रहे थे। इस घटना से दुःखी होकर वे सोचते हैं कि मेरा अपमान क्यों हुआ ? वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि में धर्म की चतुरवर्णीय व्यवस्था में नीच शूद्र हूँ।
इसी दौरान उनके सामने से अतिशूद्र (अछूत) जिनके गले में हांडी और कमर में झाड़ू बंधा हुआ था अपनी मस्ती में जा रहे थे। उन्हें देखर महात्मा फुले के दिमाग में दूसरा प्रश्न आता है, कि मुझे केवल बारात से निकाला में इतने से अपमान से दुःखी हो गया लेकिन इन अछूतों को तो जमीन पर चलने और थूकने का भी अधिकार नही है। इन्हें इस घोर अपमान का अहसास क्यों नही हो रहा ? अंततः इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि में पढ़ा लिखा हूँ इसलिए मान और अपमान के अंतर को समझता हूँ लेकिन ये अछूत अनपढ़ होने की वजह से अपनी इस दुर्दशा को नियति समझकर स्वीकार कर चुके हैं।
महात्मा फुले यदि साधारण इंसान होते तो अछूतों के अपमान को देखकर आत्मसंतुष्ट हो गए होते जैसा कि हिन्दू धर्म सदैव क्रमानुसार हर जाति को नीचता का दर्जा देकर अपमानित करता है लेकिन किसी भी व्यक्ति का आत्मसम्मान नही जागता कि नीच तो नीच ही होता है चाहे वह छह इंच नीच हो या बारह इंच। अपमान के इस अहसास ने महात्मा फुले को आधुनिक भारत का क्रांति सूर्य बना दिया। इस अपमान ने उन्हें ब्राह्मण संस्कृति के खिलाफ विद्रोही बना दिया। वे इस बात को समझ गए कि आत्मसम्मान की चाहत व्यक्ति को विद्रोही बनाती है जो क्रांति की पहली पूर्व शर्त है।
2. दुश्मन और दोस्त की पहचान- क्रांति की दूसरी पूर्व शर्त है दुश्मन और दोस्त की पहचान का होना। महात्मा फुले ने समाज में एक स्पष्ट विभाजन रेखा खेंच दी कि, भट्टजी/लाठजी/शेठजी V/s शूद्र/अतिशूद्र उनका स्पष्ट मानना था कि ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य का गठजोड़ अपने को मालिक मानकर शूद्र/अतिशूद्र को गुलाम समझता हैं, इसलिए मालिक और गुलाम के बीच में स्पष्ट विभाजन रेखा होनी चाहिए। अर्थात दुश्मन और दोस्त की स्पष्ट पहचान क्रांति की पूर्व दूसरी शर्त है।
3. आत्मनिर्भर बनकर दुश्मन का बहिष्कार- क्रांति की तीसरी पूर्व शर्त है आत्मनिर्भर बनकर दुश्मन का बहिष्कार करना। जब तक गुलाम समाज मालिक समाज पर निर्भर रहेगा वह उनके खिलाफ विद्रोह नही कर सकता। शुद्र/अतिशूद्र समाज जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त संस्कार ब्राह्मण द्वारा करवाता है, इसलिए महात्मा ज्योतिबा फुले ने सत्य शोधक समाज की स्थापना कर सत्य शोधक पद्दति से संस्कार करवाना शुरू किया ताकि समाज ब्राह्मण की निर्भरता से मुक्त होकर ब्राह्मण का बहिष्कार कर सके और अपनी लड़ाई आत्मनिर्भर बनकर स्वयं लड़ सके।
निष्कर्ष के तौर पर हम कह सकते हैं कि महात्मा फुले ने आत्मसम्मान का संघर्ष छेड़कर ब्राह्मण संस्कृति के खिलाफ सत्य शोधक समाज के माध्यम से बुद्ध अशोक कबीर रैदास आदि की श्रमण परंपरा की आधुनिक युग में नींव रखकर उसे पुनर्जीवित किया।
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