बाबासाहब डॉ अम्बेडकर जब पीएचडी करके भारत लौट रहे थे तब मुंबई में उनके कार्यकर्ताओ ने उनका सत्कार करने का आयोजन किया और यह बात जब माता रमाई को मालूम हुई तो उन्होंने सत्कार में जाने की अपनी ईच्छा जताई पर माता रमाई की एक समस्या थी की उनके पास पहनने को एक ही साडी थी वो साडी सात जगहो से फटी हुई थी। तब उनको याद आया की शाहुजी महाराज ने एक सत्कार में बाबासाहब डॉ अम्बेडकर को पघडी जिसे महाराष्ट्र में फेटा बोलते है भेंट की थी। वो पघडी फटी हुई साडी पर वहां लपेट ली और सत्कार देखने चली गई। जब किसी का सत्कार चल रहा हो तब उसकी पत्नी को मंच पर होना चाहिए। लेकिन माता रमाई वहाँ एक पेड के पिछे छिपकर सत्कार देखने लगी ताकि कोई साहब को ताना न मारे की खुद सूटबूट में रहता है और अपनी पत्नी को फटेहाल रखता है।
ईतनी भीड में भी बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर की नजर माता रमाई पर पडी जब सत्कार पूरा हुआ तब उस पेड की दिशा मे आगे बडे और पैड के पीछे खडी रमाई का हाथ अपने हाथो में ले के बोले,"रामू मुझे तुमको संवारना होता तो सोने जैसा संवारता पर मुझे पूरे समाज को संवारना है, खडा करना है, जिससे में तुमको न्याय नहीं दे पाया"। आज बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर और माता रमाई के त्याग व संघर्ष से हमारे समाज की महिलाओं की परिस्थिति इतनी बदल गई है की अगर अलमारी खोले तो धडाम करके साडीयाँ नीचे गिरने लगती है । माता रमाई की फटी हुई साडी से किया हुआ त्याग व संघर्ष से ही देश की महिलाये बनारसी, कोल्हापुरी, कांजीवरम वगैरह साडीयाँ पहन सकती है और पुरुष भी सुट, बुट व टाई मे घुम सकते है। ये बदलाव बाबासाहेब व माता रमाई के कारण ही संभव हो पाया है। एसी थी हमारी त्याग की मूर्ति माता रमाई।
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