आज भारतीय इतिहास मे ज्ञात सबसे ज्यादा बडे भूभाग पर शासन करने वाले सबसे महान सम्राट अशोक की जयंती पुरे भारतवर्ष में मनाई जा रही है। सम्राट अशोक महान को अक्सर एक बौद्ध राजा के रूप में पेश किया जाता है। सोशल मिडिया पर बहोत सारे बौद्ध साथी और कार्यकर्त्ता सम्राट अशोक के बौद्ध होने को लेकर बड़े ही उत्साह से फोटो और कुछ जानकारी प्रसारित करने में जुटे है। सम्राट अशोक का शासन काल भारत का सर्वश्रेष्ठ शासन काल था। लेकिन वाकई वो सुशासन था या नहीं? इस बात की चर्चा होना बहुत जरुरी है। भाजपा और नरेंद्र मोदी ने उनका शासन सुशासन होगा ऐसा वादा भारत की जनता के साथ किया है। लेकिन पिछ्ले आठ सालों में इनका शासन कैसा चल रहा है यह भारत की जनता देख रही है। इस पृष्ठभूमि पर बौद्ध दर्शन के परिप्रेक्ष्य में सुशासन किसे कहा जा सकता है, और सम्राट अशोक का शासन आधुनिक युग की सुशासन (गुड गवर्नेंस) की प्रस्थापित अवधारणाओं को पूरा करता है या नहीं इस तथ्य पर सोच रखना जरुरी है।
बौद्ध धम्म में सुशासन को 'धम्मपस्सना' कहा गया है। (पाली - 'Dhammappasasana) (संस्कृत - Dharmaprasasana) यह शब्द दो अलग-अलग शब्दों से बना है।
(1) धम्म - जीवन को सुखकर, कल्याणकारी बनाने के लिए अनुसरण करने वाले नियम, पुण्य कर्म, कुशल कर्म इ. और शासन के कानून, जिसका मतलब है, कानून और व्यवस्था को बनाए रखने के लिए राज्य द्वारा बनाये गए नियम (2) पस्सना - उपासना करना, पालन करना, पथ अनुसरण करना। इसका मतलब धम्म तथा राज्य के द्वारा बनाये गये नियमो का यथार्थता से पालन करना इसे सुशासन कहा जा सकता है। बुद्ध की शिक्षा और उपदेश में राज्यव्यवहार और विकास को बढ़ावा देने के लिए जिस तरह का प्रशासन अपेक्षित किया गया है वो बुद्ध के "मध्यम मार्ग दृष्टिकोण" के अनुरूप है। इस दृष्टिकोण से चलाया गया राज्य शासन शाश्वत विकास और शांतिपूर्ण समाज प्रस्थापित कर सकता है। इसे ही सुशासन कहा जा सकता है। सम्राट अशोक ने अपने शासन काल में इस दृष्टिकोण की यशस्विता को सिद्ध कर दिखाया। बाद के बौद्ध सम्राट जैसे की, मिनांडर, कनिष्क, हर्षवर्धन इन बौद्ध राजाओ के प्रशासन में यह दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से दृग्गोच्चर होता है। बौद्ध धर्म ने हमेशा मानवताभाव के उत्थान के लिए सर्वोच्च योगदान दिया है। बौद्ध धर्म में राजा को सामान्य जनता से परे कोई विशिष्ट स्थान नहीं दिया है। राजा अन्य सभी इंसानों की तरह दुनिया में पैदा होता है। अन्य धार्मिक मान्यताओ की तरह वह एक ईश्वर अवतार के रूप में नहीं माना जाता। जातक कथा क्र.132 में राजा का उल्लेख 'सम्मुतिदेवा' मतलब जनता ने मान्यता दिया हुआ श्रेष्ठ पुरुष ऐसा किया है। इस उल्लेख से स्पष्ट होता है की राजा को जनता के मान्यता की जरुरत है। राजा को भगवान की तरह पूजना चाहिए ऐसा कोई भी उपदेश बौद्ध साहित्य में नहीं मिलता। वह सिंहासन से निष्कासित भी किया जा सकता है। दिग्घ निकाय के अग्गण्यं सुत्त के अनुसार राजा या खत्तिय उसकी काबिलियत और गुणों के कारन चुना जाता है। गुणवान तथा सक्षम व्यक्ति को राजा चुनने का अधिकार जनता को है। यदि वह अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में अक्षम होता है, या उसका शिलाचरण समाप्त होता है तो जनता उसे सिंहासन से निष्कासित कर सकती है। इस से साफ़ है की, राजा का शिलाचरण और कार्यक्षमता राजा बने रहने के लिए जरुरी है।
दसविध राजधम्म - राजा को व्यापक रूप से स्वीकृति मिले और वह कई वर्षों तक जनता में प्रिय रहे इसके लिए राजा ने दस प्रकार के सद्गुणों से (दसविध राजधम्म) खुद को युक्त रखना चाहिए और कड़ाई से उसका पालन करना चाहिए ऐसा उल्लेख जातक कथा 378 (भाग 5) में मिलता है। दसविध राजधम्म इस प्रकार के है।
(1) दान - जनता के हितों और सहायता के लिए अपने सुखो का तथा प्रिय वस्तुओंका त्याग करना। प्रजा की रक्षा हेतु खुद को बलिदान करना। इसमें धन, जनसेवा सहित ज्ञानदान का भी समावेश होता है।
(2) शील (नैतिकता) - कायिक और मानसिक नैतिकता का आचरण कर प्रजा के सामने अच्छा उदाहरण पेश करना।
(3) परिच्चाग (परित्याग) - निस्वार्थ भावना और उदारता।
(4) अज्जवा (आर्जव) - निष्ठा, सच्चाई, निष्कपटता और ईमानदारी के साथ कर्तव्यों का निर्वहन करना।
(5) मद्दवो (नम्रता) - कोमल और विनम्र स्वभाव, अहंकार से परहेज रखना और अपनी गलती के लिए कभी दूसरों को जिम्मेदार न मानना।
(6) तपो (आत्म निरोधन) - मन की सभी मलिनताओ का त्याग कर कर्तव्य के प्रति समर्पित होना।
(7 ) अक्कोध (क्रोध से मुक्तता) - क्रोध और घृणा से मुक्त होकर शांति से कर्तव्य निर्वहन करना।
(8) अविहिंसा (अहिंसा) - प्रजा के किसी भी विभाग के प्रति प्रतिशोध की भावना नहीं रखना।
(9) खंति (धैर्य)
(10) अविरोधना (शुचिता, नेकी) - अन्य व्यक्तियों के विचारों का सम्मान करना, पूर्वाग्रह से ग्रसित न होना।
राजा का ब्रह्मविहार - दिग्घ निकाय खंड 2(196) और खंड 3(223) नुसार राजा के मन में अपने प्रजा के किसी भी विभाग के प्रति पक्षपात, किसी के प्रति विशेष लगाव नहीं होना चाहिए इसलिए राजाने सभी जीवित प्राणिमात्र और मनुष्य के प्रति चार प्रकार की उद्दात्त भावना का परिपोष करना जरुरी है। इसे ब्रह्मविहार करना कहा गया है। ये चार प्रकार के ब्रह्मविहार इस प्रकार है (1) मेत्ता (2) करुणा (3) मुदिता (4) उपेक्खा राजा ने अपनी प्रजा जो राज्य के किसी भी विभाग में रहती हो, किसी भी वर्ण, रंग, रूप की हो इस का विचार न करते हुए प्रजा के प्रति चार प्रकार के पूर्वाग्रहों (अगति) से बचना चाहिए। यह चार प्रकार के पूर्वाग्रह इस प्रकार है। दिग्घ निकाय खंड 3(182,288)
(1) चंडगति - विशेष रूप से पसंद करने से पुर्वग्रहित होना, पक्षपात करना।
(2) दोसगति - विशेष रूप से नापसंद होने के कारन पुर्वग्रहित होना, पक्षपात करना।
(3) मोहगति - भ्रम या मूर्खता के कारन पूर्वाग्रहित होना, पक्षपात करना।
(4) भयगति - डर की वजह से पूर्वाग्रहित होना, पक्षपात करना।
आज भारत में सत्तासीन व्यक्तियों द्वारा जिस तरह से राजधर्म के पालन को दरकिनार कर दिया गया है उसे देखने पर बुद्ध के द्वारा उपदेशित राजनीती विज्ञान को अमल में लाने की कितनी बड़ी जरूरत है यह बात स्पष्ट हो जाती है।
आधुनिक काल में सुशासन (Good Governance) के लिए जीन जरुरी बातों का उल्लेख किया जाता है, वह बौद्ध तथा त्रिपिटकिय साहित्य में बहुतायात से उल्लेखित है जो निम्नानुसार है।
(1) सह्भागीता (Participation) - राजा ने अपनी प्रजा जो राज्य के किसी भी विभाग में रहती हो, किसी भी वर्ण, रंग, रूप की हो इस का विचार न करते हुए प्रजा के प्रति चार प्रकार के पूर्वाग्रहों (अगति) से बचना चाहिए। उन्हे योग्यतानुसार राजा के लिये कार्य करने का मौका देना चाहिये।
(2) कानून के अनुसार शासन (Rule of Law) - बौद्ध दर्शन के अनुसार राजा ने शील का पालन करते हुए शासन चलाना चाहिये। इस में राज्य को सुचारू रूप से चलाने के लिये बनाये गये कानून और नियमो के प्रती प्रतिबद्ध रहना अपेक्षित है। बौद्ध दर्शन के अनुसार "शील" का संबंध चरित्र से है। इसे तीन भागो में विभाजित किया गया है। (1) कायासुचरिता (कृती में शुचिता रखना), (2) वाचासुचरिता (वाणी की शुचिता), (3) मानस सुचरिता (मन की शुचिता ) राजा ने इन तीन प्रकार की शुचिता का पालन खुद करणा चाहिये और अपने प्रजा से करवाना चाहिये।
(3) पारदर्शिता (Transparency) - बुद्ध दर्शन के अनुसार राजा में आज्जव (आर्जव) यह गुण होणा जरुरी है, इस गुण के कारण राजा निष्ठा, सच्चाई, निष्कपटता और ईमानदारी के साथ कर्तव्यों का निर्वहन करता है। और अपने शासन से संबंधित अनुदेशो की जानकारी प्रजा को देता है। जैसे की सम्राट अशोक ने अपने शासनकाल में शिलालेखो के मध्यम से अपने शासन के महत्वपूर्ण अनुदेशो की जानकारी प्रजा को अवगत करायी थी।
(4) जवाबदेही (Responsiveness) - राजा ने किसी भी पूर्वाग्रहों या पक्षपात के बिना सभी विषयों और मनुष्यमात्र के प्रति प्यार-दयालुता (Metta) और करुणा (Compassion) रखनी चाहिये। राजा ने समाज में गरीब या वंचित लोगों की पीड़ा को खुद की पिडा समझना चाहिए।
(5) आम सहमति बनाने का दृष्टिकोण (Consensus - Oriented Approach) - राजा को अपना कर्तव्य बल का प्रयोग न करते हुए आम सहमती बनाकर शासन करना चाहिये । पाली में इसे येभुय्यसिका (अधिकरणसंमत ) कहा गया है। राजा ने शासन चलाते वक्त अत्ताधीपतेय्य (केवल स्वयं के मतानुसार) निर्णय न लेकर अधिकरणसंमत तरीके से निर्णय लेना चाहिये।
(6) भागीदारी और समावेषण (लोकाधिपतेय्य) (Equity and Inclusiveness) - राजा को प्रजा के हितो का ख्याल रखकर अपने व्यक्तिगत सुख का त्याग करना पड़ता है। शासन किसी एक के आधिपत्य में न होकर लोगो के आधिपत्य में 'लोकाधिपतेय्य' होणा चाहिये राजा दूसरों की खातिर क्योंकि
(7).परिणामकारकता और क्षमता (Effectiveness and Efficiency) - यह संकल्पना परिच्चाग (परित्याग) आज्जव (आर्जव) मद्दवो (नम्रता)तपो (आत्म निरोधन) अक्कोध इन सद्गुनो से संबंधित है। जो राजा इन गुणो का संग्रह करता है वह अपनी क्षमता में की गुना वृद्धी करता है तथा परिणामकारक शासन कर सकता है।
(8) उत्तरदायित्व - राजा ने अपने कर्तव्यो का निर्वहन करते वक्त उत्पन्न हुए हर परिणाम की जिम्मेदारी खुद लेनी चाहिये। इसके लिये राजा में शील (नैतिकता), मद्दवो (नम्रता) कोमल और विनम्र स्वभाव, अहंकार से परहेज रखना और अपनी गलती के लिए कभी दूसरों को जिम्मेदार न मानना। तपो (आत्म निरोधन): मन की सभी मलिनताओ का त्याग कर कर्तव्य के प्रति समर्पित होना। अविहिंसा (अहिंसा): प्रजा के किसी भी विभाग के प्रति प्रतिशोध की भावना नहीं रखना। खंति (धैर्य) यह गुण विद्यमान होणा आवश्यक है। सम्राट अशोक महान में उपरोक्त वर्णीत सभी गुणोका समुच्चय दिखाई देता है। इस लिये उनका शासन काल सुशासन (Good Governance) का आदर्श नमुना कहा जाता है।
सम्राट अशोक का शासन बुद्ध के विचारों पर आधारित एक आदर्श शासन था। उनका शासन आधुनिक जनतांत्रिक राज्यव्यवस्था के मूल्य और जनकल्याणकारी शासनव्यवस्था का उत्तम उदाहरण है। उनके शासन व्यवस्था में विद्यमान बहुत सारी जनकल्याणकारी बातों को भारतीय संविधान में समाहित किया गया है। इस महान सम्राट को उनके जयंती अवसर पर सादर नमन।
लेखक: सुनील खोब्रागडे
0 Comments so far
Jump into a conversationNo comments found. Be a first comment here!
Your data will be safe! Your e-mail address will not be published. Also other data will not be shared with third person.
All fields are required.